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भीष्म साहनी के नाटक

हिंदी नाटक में आधुनिकता के कई चरण रहे हैं। पिछली शताब्दी के पूर्वार्ध में एक ओर जहाँ विपरीत ध्रुवों पर खड़े प्रसाद और भुवनेश्वर दिखाई देते हैं, वहीं उनसे भी थोड़ा पहले 1916 में लक्ष्मण सिंह चौहान ‘कुली प्रथा’ जैसा गठा हुआ यथार्थवादी नाटक लिख चुके थे। लेकिन बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में आजादी का एजेंडा हासिल हो जाने से आधुनिकता की नई प्रवृत्तियाँ सामने आईं। एकाएक व्यक्ति यहाँ प्रमुख हो गया था। वह व्यक्ति जो खुद को दूसरों से खास समझता था पर था उनके जैसा ही। फिर यह आधुनिकता कई तरह के प्रयोग करना चाहती थी। मंच को दर्शक दीर्घा तक ले जाया गया, या दर्शकों को मंच पर उतार दिया गया।....वगैरह। इस सारे कोलाहल के बीच भीष्म साहनी को हम एक ऐसे रचनाकार के रूप में पाते हैं जिनकी आधुनिकता ठेठ भारतीय परंपरा से उपजी है। इसे हम इस तरह समझ सकते हैं कि पश्चिम में दो-दो महायुद्धों ने व्यक्ति और उसके अस्तित्व के सवाल को जिस तरह केंद्र में ला दिया था वह उस तरह हमारी समस्या नहीं थी। (बावजूद इसके कि इन पश्चिमी प्रवृत्तियों का प्रभाव हिंदी में कई रचनाकारों पर काफी गहरा था; और कुछ ने इसे फैशनेबल ढंग से भी पकड़ा हुआ थ