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उज्जैन में 'आधे अधूरे'

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जयंत देशमुख सिनेमा के जाने-माने सेट डिजाइनर हैं। उनका यह हुनर एमपीएसडी के छात्रों के लिए निर्देशित नाटक ‘आधे अधूरे’ में भी पूरे उरूज पर नुमाया था। मोहन राकेश की सुझाई सीमित सज्जा से परे उनका मंच तरह-तरह के मध्यवर्गीय सामानों से खचाखच भरा हुआ है। काले कोट वाला आदमी कम से कम आधा दर्जन स्विच ऑन करके इस भरे-पुरे मंच को रोशन करता है। असली स्विच की तरह असली वाशबेसिन और उसमें टोंटी से आता असली पानी और असली ड्रैनेज पाइप। दीवारें भी ऐसी हैं कि उ नकी पुताई पुरानी होने से धब्बे उभर आए हैं। फिर किताबों की रैक, डाइनिंग टेबल...और न जाने क्या-क्या! पूरा मंच अपने में ही एक इंस्टालेशन की तरह है। छात्रों से बातचीत के सत्र में उन्होंने इस सेट का एक ‘रेप्लिका’ भी प्रदर्शित किया, जिसके जरिए चीजों को किस स्केल में कैसे बरता जाए आदि बातों की चर्चा हुई। जो भी हो, यह सेट ‘आधे अधूरे’ के यथार्थवाद पर काफी भारी था। निर्देशक ने नाटक के यथार्थ पर तो नहीं लेकिन अभिनेताओं पर उसके हावी होने की बात को कबूल किया, पर यह भी बताया कि इस छात्र-प्रस्तुति में सेट खुद ही एक प्रयोजन के रूप में था। जयंत देशमुख ने नाटक को सामयिक

आनंद रघुनंदन

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संजय उपाध्याय निर्देशित ‘ आनंद रघुनंदन ’ एक देखने लायक नाट्य प्रस्तुति है। सन 1830 में रीवा के राजा विश्वनाथ सिंह द्वारा ब्रजभाषा में लिखित इस नाटक को हिंदी का पहला नाटक भी माना जाता है। प्रस्तुति के लिए रीवा के ही रहने वाले योगेश त्रिपाठी ने इसका अनुवाद और संपादन वहीं की बघेली भाषा में किया है। ‘ आनंद रघुनंदन ’   में रामकथा को पात्रों के नाम बदलकर कहा गया है। राम का नाम यहाँ हितकारी है , लक्ष्मण का डीलधराधर , सीता का महिजा , परशुराम का रेणुकेय , दशरथ का दिगजान , केकैयी का कश्मीरी , सूर्पनखा का दीर्घनखी और रावण का दिकसिर , आदि। तरह-तरह के रंग-बिरंगे दृश्यों और गीत-संगीत से भरपूर यह प्रस्तुति एक अनछुए लेकिन पारंपरिक आलेख का शानदार संयोजन है। इसमें इतने तरह की दृश्य योजनाएँ इस गति के साथ शामिल हैं कि व्यक्ति मंत्रमुग्ध बैठा देखता रहता है। धनुषभंजन के दृश्य में पात्रों का एक समूह बैठने के तरीके को बदलकर धनुष बन जाता है। जब धनुष तोड़ा जाता है तो आधे एक ओर और आधे दूसरी ओर झुक जाते हैं। परशुराम उर्फ रेणुकेय और दोनों राजकुमारों में तब जो बहस-मुबाहसा होता है वह नौटंकी शैली में है। इसी तर

अंग्रेज भारत में कैसे आए

भारत में सबसे पहला अंग्रेज थॉमस स्टीवन एक पुर्तगाली कर्मचारी था, जो 24 अक्टूबर 1579 को समुद्र के रास्ते गोवा पहुँचा था। वह एक समर्पित कैथोलिक था जिसे गोवा के एक उपनगर का अफसर नियुक्त किया गया। यहाँ रहते हुए उसने मराठी और कोंकणी भाषा सीखी और यहीं की भाषा में ‘ क्राइस्ट पुराण ’ लिखी। लेकिन व्यापाराना उद्देश्यों से बिल्कुल शुरू में आए अंग्रेज पहली बार गुजरात के नजदीक दीव में 5 नवंबर 1583 को पहुँचे थे। यह व्यापारियों का एक ग्रुप था जो जमीन के रास्ते भारत और चीन से व्यापार की संभावनाएँ तलाश करने के लिए उसी साल फरवरी में लंदन से ‘ टाइगर ’ नाम के जहाज पर निकला था। उनका सबसे पहला पड़ाव सीरिया का एलेप्पो शहर था ( ‘ मैकबेथ ’ की पहली चुड़ैल कहती है ‘Her husband  to Aleppo gone, master of the Tiger.’ )। वहाँ से वे इराक के बसरा, बगदाद, और फिर ईरान के ओरजस बंदरगाह, जो पुर्तगालियों के कब्जे में था, तक कभी समुद्र, कभी नदी, कभी जमीन के रास्ते होते हुए पहुँचे थे। यहाँ उन्हें जासूस होने के शक में गिरफ्तार कर जहाज पर लादकर गोवा लाया गया और जेल में डाल दिया गया। जेल से जमानत पर बाहर आने में उनकी मदद