सीधी में कर्णभारम्

नीरज कुंदेर और रोशनी मिश्रा निर्देशित ‘कर्णभारम्’ डेढ़ साल पहले भारंगम में देखी थी। शनिवार को दोबारा उसे सीधी के मंच पर देखा। प्रस्तुति में शास्त्रीय और लोक नाट्य तत्त्वों का बहुत अच्छा संयोजन है। पिछली बार सीधी के गाँवों में ‘अहिराई लाठी’ के ओरिजिनल प्रदर्शन देखे थे। अब यह प्रस्तुति देखी तो समझ आया कि परशुराम से युद्ध-कला सीख रहा कर्ण अहिराई लाठी भी सीख रहा है। इसी तरह खुद की जाँघ पर सिर रखे सो रहे परशुराम की नींद में खलल डाले बगैर कर्ण बिच्छुओं से जूझ रहा है— इस दृश्य में आदिवासी ‘गुदुम बाजा’ शैली के एक अंग ‘डाँगर’ का इस्तेमाल किया गया है। बिच्छू की जगह दोमुँहा जीव डाँगर यहाँ कर्ण को लहूलुहान कर रहा है। नाटक में कोरियोग्राफी का अनुशासन और इससे पैदा होती लय भी देखने लायक है। पात्रों के हाथ में मंजीरा है और हर ‘स्टेप’ के साथ उसका स्वर कैसी तो थिरकन पैदा करता है! मंच के एक छोर पर बैठे निर्देशकद्वय में से एक रोशनी मिश्रा के स्वर, आलाप और थापों से मिलकर बने इस संयोजन का अनुशासन हिंदी पट्टी में एक दुर्लभ चीज है। प्रस्तुति में कर्ण बने नरेन्द्र सिंह की आँखों में भी कुछ बात है जो कर्ण के किरदार के बिल्कुल माफिक है। केएन पणिक्कर से ट्रेनिंग ले चुके नीरज ने बताया कि पणिक्कर ने प्रस्तुति का वीडियो काफी संजीदगी से देखा और इसलिए खुश हुए कि यह ‘उनके जैसा’ काम नहीं था।
‘कर्णभारम्’ नाट्यशास्त्र के निर्देशों का उल्लंघन करके लिखी गई रचना है। हालाँकि नाट्यशास्त्र द्वारा त्रासदी को निषिद्ध कर दिया जाना भी एक मजाक ही कहा जाएगा। मेरा खयाल है कि भरतमुनि द्वारा दुखांत को वर्जित किए जाने का यह सिद्धांत हिंदुस्तानी साहित्य में भाववाद का प्रस्थान बिंदु है, जहाँ से भविष्य का समूचा रेटॉरिक आकार लेता रहा।
51 दिन के महाउर उत्सव के इस समापन आयोजन में मुख्य अतिथि के तौर पर गोविंद नामदेव आए हुए थे, जिनके साथ फोटो खिंचवाने की होड़ लगी थी। सीधी के विधायक केदारनाथ शुक्ल, जो संस्कृत साहित्य के विद्यार्थी रहे हैं, ने इस मौके पर दिए वक्तव्य में विंध्य क्षेत्र के सांस्कृतिक महत्त्व का उल्लेख करते हुए रामचरितमानस को बघेली भाषा की रचना कहा जिसमें अवधी का भी उपयोग किया गया है।

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