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भारंगम में फिल्म वालों के नाटक

‘ बर्फ ’ : सौरभ शुक्ला =============== यह एक तीन पात्रों की अजीबोगरीब कहानी है। कश्मीर गया हुआ एक डॉक्टर किसी गफलत में अपने टैक्सी ड्राइवर के एक बीहड़ एकांत में स्थित गाँव में पहुँचा हुआ है। ड्राइवर का घर इस निर्जन गाँव का अकेला आबाद घर है, जहाँ वह अपनी बीवी के साथ रहता है। पार्श्व में एक विशाल सफेद कपड़े से बर्फीले पहाड़ का मंजर बनाया गया है और आगे की ओर ड्राइवर का दोमंजिला घर भी कहानी के माहौल के लिहाज से काफी ठीकठाक है। इन दोनों के बीच में कुछ मकानों की खिड़कियों में रोशनी दिखती है। सिनेमा की तर्ज के म्यूजिक और कमोबेश साफ-सुथरे चरित्रांकन में लगता है कुछ निकलकर आएगा। लेकिन ऐसा होने के बजाय कहानी एक साथ लोककथा, रहस्यकथा और नीतिकथा होने के घनचक्कर में फँस गई है। डॉक्टर की बीवी कुछ साइको-नुमा है, जो एक गुड्डे को अपना बच्चा समझती है, और रूहों से निर्देश लेती है। ड्राइवर अपनी मोहब्बत में दिन-रात बीवी की गलतफहमी बनाए रखने की जुगत किया करता है। अब डॉक्टर बीमार होने के कारण लगातार सो रहे ‘ बच्चे ’ का इलाज करने के लिए एक तरह से यहाँ बंदी बना लिया गया है। इससे आगे कहानी में जो ह

रतन थियम का मैकबेथ

रतन थियम के थिएटर का मूल तत्त्व मौन है, जिसमें ध्वनि और स्वर खिलकर सामने आते हैं। इसी तरह वे अँधेरे का इस्तेमाल भी करते हैं, जिसमें रोशनियाँ मानो अपने क्लासिक अभिप्रायों में बरती जाती दिखती हैं। बेसिक रंग अक्सर ही उनके यहाँ अपने तीखेपन के साथ दिखाई देते हैं। तीसरी चीज है समय। रंग हो, कोई ध्वनि हो या संवाद ये सब एक निश्चित समय के दौरान अपने आरोह-अवरोह की लय में ही उनके यहाँ मुकाम पाते हैं। इन सारी बातों को आसान भाषा में कहा जाए तो उनका नाटक एक सभ्य दर्शक को छींकन े-खाँसने, ताली बजाने की मोहलत और इजाजत नहीं देता। उनका थिएटर अपने व्याकरण, अनुशासन, सौंदर्यबोध और संजीदगी में इब्राहीम अलकाजी की परंपरा को थोड़ा और परिष्कार के साथ लेकिन अपने ही मुहावरे में आगे ले जाता है। रतन थियम के नाटक को उनके इस एस्थेटिक्स के अलावा जो चीज महत्त्वपूर्ण बनाती है वह है विचार। उनकी प्रस्तुति अपने समय-विशेष की किसी प्रवृत्ति को इंगित करने का एक मकसद लिए होती है। जैसे कि यह 'मैकबेथ' (इस टिप्पणी के आखिर में उनके निर्देशकीय से यह बात ज्यादा स्पष्टता से समझी जा सकती है)। एक दृश्य में अपनी लालसा में पति को

भारंगम उद्घाटन : एक रिपोर्ट

1 फरवरी को हुए अठारहवें भारत रंग महोत्सव के उद्घाटन कार्यक्रम में अनुपम खेर ने एनएसडी के दिनों को और उन दिनों की गुरबत को नॉस्टैल्जिया की तरह याद किया। उनके बाद बोलने आए नाना पाटेकर ने उन्हें दुरुस्त किया कि गुरबत सिर्फ गुरबत नहीं होती, उसके साथ अपमान भी जुड़ा होता है, और इन दोनों के साथ जीने का भी एक अपना 'मजा' है। उन्होंने महाराष्ट्र में किसानों की बुरी हालात के जिक्र किए और बताया कि उन्होंने एक फाउंडेशन बनाया है जिसने चार महीने में 22 करोड़ रुपए जमा किए हैं जिससे सूखा प्रभावित क्षेत्र में जल संचयन आदि के काम किए जा रहे हैं और उन क्षेत्रों में अब वाटर टैंकर भेजने की जरूरत नहीं पड़ेगी; 115 किलोमीटर के क्षेत्र में ये काम अभी चल रहे हैं। उन्होंने कहा कि यह सरकार इस बारे में क्या कर रही है या पिछली सरकार ने क्या किया, मैं इसपर कोई टिप्पणी नहीं करता, मेरे लिए महत्त्वपूर्ण यही है कि हम क्या कर सकते हैं। ठसाठस कमानी ऑडिटोरियम के अगले दरवाजे से नाना का प्रवेश होते ही पूरा हॉल तालियों वगैरह से जिस तरह गूँजा वह किंचित अप्रत्याशित था। मानो हर कोई नाना के लिए उस दरवाजे प