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न्यायप्रियता जहाँ ले जाती है

अल्बेयर कामू के नाटक  ‘ जस्ट एसेसिन ’  उर्फ  ‘ जायज़ हत्यारे ’  को परवेज़ अख्तर ने  ‘ न्यायप्रिय ’  शीर्षक से मंचित किया है। नाटक कामू के प्रिय विषय  ‘ एब्सर्ड ’  की ही एक स्थिति पेश करता है, और शायद समाधान भी। इसकी थीम 1905 के दौरान सोवियत क्रांतिकारियों के एक ग्रुप से जुड़ी एक वास्तविक घटना पर आधारित है, पर प्रस्तुति में इसे भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन से जोड़ा गया है। एक अंग्रेज अफसर की हत्या की जानी है। लेकिन ऐन बम फेंके जाने के वक्त दो बच्चे वहाँ मौजूद होने से क्रांतिकारी मस्ताना बम नहीं फेंक सका। ग्रुप के एक क्रांतिकारी तेजप्रताप को ऐतराज है कि उद्देश्य की राह में भावुकता को आड़े क्यों आने दिया गया। लेकिन मस्ताना के लिए यह मुमकिन नहीं था कि वह बच्चों के ऊपर बम फेंक पाए। बहरहाल दूसरी कोशिश में अफसर मार दिया जाता है, और मस्ताना जेल में है। यहाँ एक दूसरा एब्सर्ड अफसर की बीवी के आगमन के रूप में पेश आता है। वह अपने मार दिए गए अफसर पति के कई मानवीय पक्षों के बारे में बताती है, और उसका यह बताना एक नया विरोधाभास पैदा करता है। उसके जाने के बाद एक सरकारी एजेंट का प्रवेश होता है जो एक कबूलनाम

तोलस्तोय, भारत और गांधी

तोलस्तोय को हमारे देश में अक्सर गांधी के प्रसंग से याद किया जाता है। गांधी अपने आरंभिक दौर में उनसे गहरे प्रभावित रहे और दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने एक तोलस्तोय आश्रम भी बनाया। ईश्वर, अहिंसा, निजी संपत्ति और शाकाहार पर गांधी के विचार लगभग वही थे जो तोलस्तोय के थे। इस अर्थ में गांधीवाद काफी हद तक तोलस्तोय के विचारों का ही राजनीतिक सूत्रीकरण मालूम देता है। तोलस्तोय हिंसा को सबसे बड़ी बुराई और ईश्वर को मनुष्य का ध्येय मानते थे। इस क्रम में जिस तरह वे राज्यसत्ता की हिंसा और अंततः राज्य के ही मुखर विरोधी थे, उसके कारण उनके विचारों को अराजकतावादी भी माना गया। तोलस्तोय का मानना था कि राज्य को बुरे लोग क्रूर ताकतों के समर्थन से चलाते हैं, और एक सुसंगठित राज्य लुटेरों से कहीं ज्यादा खतरनाक होता है। अपने परवर्ती जीवन में वे विज्ञान और राज्य के पश्चिमी मॉडल के इस कदर खिलाफ थे कि भारत जैसे देश की ओर उम्मीद से देखते थे। हालांकि उनकी यह उम्मीद भारत की परिस्थितियों के बारे में उनकी कम जानकारी और संभवतः बुद्ध की जन्मभूमि के रूप में कुछ ज्यादा ही ऊंची धारणा पर आधारित थी। उन्होंने बुद्ध के विचारों क

देश में बदलाव के लिए छह सुझाव

1991 के बाद बनी अर्थव्यवस्था बड़ी पूँजी की फूँक से फुलाई हुई अर्थव्यवस्था है। किसी भी अर्थव्यवस्था की जाँच का वास्तविक तरीका उसके सबसे गरीब लोग होते हैं। लेकिन इस फुलाई हुई अर्थव्यवस्था ने सिद्धांततः गरीबी को अप्रासंगिक और व्यवहारतः उसे ज्यादा दयनीय बनाया है। सबसे गरीब आदमी फटीचर यूनीफॉर्म पहने दफ्तरों और सोसाइटियों के बाहर गार्डगीरी करता दिखता है और दिन के बारह घंटे नौकरी में गिरवी रखने के बाद उतना गरीब मालूम नहीं देता ; जबकि उसकी जिंदगी पहले की तुलना में बहुत कम उसकी अपनी है। भौतिक रूप से पुराने फुटपाथ के दिनों से उसकी हालत जितनी बेहतर हुई है उसकी तुलना में ऊपर वाले लोगों की हालत उनकी वर्गीय हस्तियों के हिसाब से कई-कई गुना ज्यादा बेहतर होती गई है—इसलिए अंततः उसकी स्थिति ज्यादा हीन ही हुई है। इसे संक्षेप में कहें तो वैश्वीकरण का फायदा उठाकर भारतीय राज्य-व्यवस्था ने यहाँ की प्रिय सामाजिक प्रवृत्ति ‘ हाइरारकी ’ (ऊँच-नीच) को एक आर्थिक दिशा देकर उच्चतम अवस्था में पहुँचा दिया है। ऐसा विश्वपूँजी को छुट्टा छोड़ने और अपने तईं मुद्रास्फीति को बढ़ावा देने से हुआ है। विश्व पूँजी ‘ गैरजरूरी ’

सियारों की छवियाँ

एक गांव में एक बूढ़ा आदमी अपनी बुढ़िया के साथ रहता था। दोनों खेत में बीज बोने गए , तभी उन्हें दो चालाक सियार मिले। एक सियार ने उनसे कहा कि उसने काफी कृषि विज्ञान पढ़ रखा है और अगर उन्हें अच्छी फसल चाहिए तो उन्हें बीज को उबाल कर बोना चाहिए। बूढ़े ने ऐसा ही किया। उधर रात को दोनों सियार अपने साथियों के साथ आए और सबने खेत पर उबले हुए बीजों की जमकर दावत उड़ाई। सुबह बूढ़े दंपती को जब हकीकत मालूम हुई तो सियारों को सबक सिखाने के लिए उन्होंने भी एक चाल चली। बुढ़िया जोर-जोर से रोने लगी कि बूढ़ा मर गया है। आवाज सुनकर सब सियार वहां जमा हो गए। और तब बूढ़े ने अपनी लाठी से जमकर उनकी पिटाई की। आखिरकार परस्पर बदले की इस भावना को समाप्त करने का एक रास्ता निकलता है।   यह कहानी है उत्तरी त्रिपुरा के धर्मनगर के ' कथा चित्र ' ग्रुप की प्रस्तुति ' चुप कथा ना ' की , जिसका मंचन राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा आयोजित उत्तरपूर्वी राज्यों की बाल प्रस्तुतियों के समारोह के अंतर्गत श्रीराम सेंटर में सोमवार 20 दिसंबर को किया गया। करीब एक घंटे की इस प्रस्तुति में मंच पर सात-आठ साल से 14-15 साल

दारियो फो : एक खरे मसखरे का जाना

अभी तीन साल पहले जीवन और रंगमंच में 60 साल तक उनकी सहचर रहीं पत्नी फ्रांका रेमे का निधन हुआ था, और अब इस 13 अक्तूबर को इतालवी नाटककार दारियो फो भी 90 साल की उम्र में दुनिया को विदा कह गए। फो अपने जीते-जी रंगमंच में प्रतिरोध की बहुत बड़ी आवाज थे। उनके लिखे 80 नाटक दुनिया की तीस से ज्यादा भाषाओं में अनुवाद होकर खेले गए, जिनके कारण उन्हें भरपूर मात्रा में प्रशंसक और दुश्मन दोनों मिले और 1997 में नोबल प्राइज भी। फो के नाटकों की विशेषता थी- समकालीन मुद्दों से उनका जुड़ाव, अपने वक्त की तल्खियों पर तीखी व्यंग्यात्मकता और नाटकीयता का एक ऐसा ढाँचा जिसमें स्थितियाँ अपनी विचित्रताओं में बहुत तेजी से घटित होती हैं। उनके दो नाटक पूरी दुनिया में (और हिंदी में भी) सबसे ज्यादा खेले गए— ‘ एक्सीडेंटल डेथ ऑफ एन एनार्किस्ट ’ और ‘ चुकाएँगे नहीं ’ ( ‘can’t pay? won’t pay!’ )। इनमें ‘ चुकाएँगे नहीं ’ महँगाई के विषय पर केंद्रित नाटक है। शहर में बढ़ती कीमतों के बीच किसी स्टोर पर खाद्य पदार्थों की लूट हो गई है। एंटोनिया भी इस लूट में सामान ले आई है। अब उसे इस बात को अपने पति से छिपाना है, जो चुराए गए

कौन थी अनारकली?

अनारकली की कहानी सबसे पहले ‘ गुजिश्ता लखनऊ ’ के लेखक अब्दुल हलीम शरर ने लिखी थी । शरर का जन्म मटियाबुर्ज में हुआ था, जहाँ लखनऊ से बेदखल कर दिए जाने के बाद अवध के नवाब वाजिद अली शाह और उनके साथ गए लोगों को बसाया गया था। वाजिद अली शाह ने अंग्रेजों से मिलने वाली मोटी पेंशन से इमामबाड़ा और लखनवी शैली की इमारतें बनवाकर मटियाबुर्ज में एक छोटा-मोटा लखनऊ खड़ा कर लिया था। इस नकली लखनऊ में रहते हुए शरर में नवाबी दौर और मुस्लिम तहजीब का ऐसा स्मृत्याभास पैदा हुआ कि बाद में वे असली लखनऊ लौट आए और 1926 में जब उनका इंतकाल हुआ तब तक वे मुगलिया माज़ी पर 102 किताबें लिख चुके थे। इन्हीं में एक कहानी अनारकली की थी। दिलचस्प ये है कि शरर ने इसे इतिहास के एक वास्तविक दौर के हवाले से कही गई एक काल्पनिक कहानी बताया था। शरर के बाद 1922 में इम्तियाज अली ताज, जिन्हें आगा हश्र कश्मीरी के बाद के दौर का उर्दू का सबसे बड़ा नाटककार माना जाता है, ने अनारकली के किरदार पर एक नाटक लिखा, जो बहुत मशहूर हुआ और खूब खेला गया। इसी नाटक की शोहरत बाद में ‘ अनारकली ’ और ‘ मुगले आजम ’ फिल्मों के बनने की वजह बनी। अब्दुल हलीम