कच्चेपन के भावबोध की प्रस्तुति

ताऊस चमन का अर्थ है मोर का बगीचा। रंगकर्मी अतुल तिवारी की प्रस्तुति ताऊस चमन की मैना उर्दू कथाकार नैयर मसूद की एक कहानी पर आधारित हैजिसमें नानी-दादी की कहानियों की तरह छोटी-छोटी बातों के बड़े-बड़े विस्तार और वैसी ही भोली सरलता है। इन्हीं सब के जरिए एक छोटी सी कथावस्तु करीब सवा दो घंटे के विस्तार में पसरी हुई है। प्रस्तुति में तीन कैदियों में से एक कालेखां अपनी कहानी सुना रहा है। उसकी सबका खयाल रखने वाली सुखन बीवी अचानक एक रोज दौरा पड़कर गिर जाने से मर जाती है। बेहाल यहां-वहां भटकते कालेखां को राजा के बनवाए ताऊस चमन में नौकरी मिल जाती है। उसकी बेटी को पहाड़ी मैना चाहिए। एक रोज वह वहां से पहाड़ी मैना को चोरी से घर ले जाता है। यही चोरी बाद में उसके जी का जंजाल बन जाती है। नाटक में थोड़ा सा इतिहास भी है। कहानी का राजा वाजिद अली शाह है और ताऊस चमन लखनऊ के कैसर बाग में स्थित बताया गया है। प्रस्तुति में इतिहास के साथ थोड़ी ज्यादती भी है, क्योंकि उसमें ब्रिटिश रेजीडेंट को जोकर और राजा को न्याय और दयालुता की प्रतिमूर्ति की तरह दिखाया गया है। फिर भी प्रस्तुति ऐसी चित्रकथा नुमा है कि देखनेवाले को ऐसी नुक्ताचीनी ज्यादती लग सकती है। प्रस्तुति में तीन तोते बने पात्र तीलियों का एक मुखौटा पहने और कथकली की तरह एक चादर पकड़े उसके पीछे खड़े हैं। उनकी बनावट में कहीं तोतापना नहीं है, पर जब वे रटंतू तरह से बातों को दोहराते हैं तो उनका तोता होना स्पष्ट होता है। इसी तरह कालेखां की बीवी की मौत पर मातमपुर्सी का एक लंबा दृश्य है। पंगत में कई लोग बैठे हैं और एक पात्र बीच में बैठी गा-गाकर सोगवार है। पूरी प्रस्तुति के दौरान प्रायः सभी पात्र एक जैसे सफेद रंग के कपड़े पहने हैं। यह सारा तामझाम कुछ ऐसा है मानो किसी खास शैली में दिखाया जा रहा कोई किस्सा हो। कथावस्तु इसमें चाहे जितनी भी धींमी और सरल हो, पर धीरे-धीरे एक माहौल बनता जाता है। इस माहौल में अभिव्यक्तियों की एक पद्धति है। कालेखां की बात सुनकर दारोगा की च्च च्च और अरे अरे में सहानुभूति के लक्षण काफी रवायती और सुनिश्चित हैं। इसी तरह दुखी पात्र इसमें काफी टकसाली ढंग का दुखी है, और मददगार भी ठेठ उसी ढंग का। विशाल पिंजरे के तमाम पंछियों के लिए अलग-अलग गतियां निश्चित हैं। इनकी वेशभूषा में मोर या मैना जैसा कुछ भी नहीं है, पर उनकी निर्धारित देहगतियों की बार-बार की अभिव्यक्ति में काफी सटीक अनुशासन है। निर्देशक ने इस सारी डिटेलिंग को काफी इत्मीनान से एक संगीत संयोजन के साथ अंजाम दिया है। यह वाकई काफी दिलचस्प है कि अयथार्थवादी अवयवों से इसमें बात का एक वातावरण बनाया गया है, जिसमें मुर्गों की लड़ाइयां दस्ताना-मुर्गों से लड़ी जाती हैं।
प्रस्तुति के सभी पात्र काफी सहज हैं और यही उसकी विशेषता बन गई है। फलकआरा और फलकमैना बनी दोनों छोटी लड़कियां- वियांसा वर्मा और अफसाना अहमद- की इस दृष्टि से तारीफ करनी होगी। शायद कुल प्रस्तुति की सबसे बड़ी बात ही यह है कि उसमें कच्चेपन के भावबोध को आकार दिया जा सका है। वह भावबोध जो एक तरह की मासूमियत के भीतर रहता है और धीरे-धीरे जिंदगियों से दूर होता जा रहा एक पहलू है।
रेजीडेंट और उसकी बीवी का प्रसंग प्रस्तुति में एक फिलर जैसा लगने के बावजूद दृश्य के तौर पर अच्छा लगता है। इसी तरह पिंजरे के इर्द-गिर्द से होता हुआ वाजिद अली शाह का प्रवेश भी एक काफी मौलिक दृश्य संरचना है। इस भूमिका में देवीना मेद्दा की खुशनुमा मुद्रा पूरे माहौल को ही थोड़ा खुशनुमा बना देती है। 

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