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ऊबे हुए सुखी

पोलैंड की रहने वाली तत्याना षुर्लेई से मैंने पूछा कि उन्हें भारत में सबसे अनूठी बात क्या लगती है। उन्होंने   ‘ मुश्किल सवाल है ’   कहकर आधे मिनट तक सोचा , फिर बोलीं-   ‘ यहां कोई किसी नियम-अनुशासन की परवाह नहीं करता , फिर भी सब कुछ चलता रहता है , यह बहुत यूनीक है... लेकिन अच्छा है। ’   मुझे याद आया कि कुछ सप्ताह पहले दफ्तर में आए एक अमेरिकी गोरे युवक जॉन वाटर ने भी कहा था-   ‘ वस्तुनिष्ठता फालतू चीज है ’।  मैंने तत्याना से कहने की कोशिश की कि अपने समाज की नियमबद्धताओं की ऊब के बरक्स वे दिल्ली के एक छोटे से हिस्से की जिंदगी के सहनीय केऑस को देखकर मुग्ध न हों , क्योंकि परवाह न करने की आदत से पैदा हुए नरक उन्होंने अभी नहीं देखे हैं। उदाहरण के लिए मैं उन्हें बताना चाहता था कि मैं जिस रिहायशी कॉम्प्लेक्स में रहता हूं वहां काम करने वाले गार्डों को साढ़े पांच हजार रुपए वेतन में रोज बारह घंटे और सातों दिन नौकरी करनी होती है ;   और यह कि ऐसे सैकड़ों परिसरों , दफ्तरों , फैक्ट्रियों में हजारों की तादाद में ऐसे गार्ड और गार्डनुमा लोग काम करते हैं और इस मुल्क में कोई नहीं है जो उनकी जीवन स्थितियो

हूबहू जीवन की सच्ची कहानी

प्रेमचंद सहजवाला का उपन्यास  ‘ नौकरीनामा  बुद्धू का ’  पढ़ते हुए सहज ही उसके आत्मकथात्मक होने का अनुमान होता है. यह उसके नायक बुद्धू उर्फ समर्थ के लड़कपन से लेकर रिटायरमेंट तक की बहुतेरे रोजनामचों में फैली जीवनकथा है ,  जिसमें छोटे-छोटे प्रसंगों की भी काफी शिद्दत  से डिटेलिंग की गई है. ऐसा लगता है कि लेखक ने बगैर संपादन किए डायरियों में दर्ज अपने ही जीवन को एक सिलसिले में पेश कर दिया है. इसमें कोई कहानी नहीं बुनी गई है ,  लेकिन यह काफी कुछ हूबहू जीवन खुद ही ऐसी दिलचस्प कहानी है कि उपन्यास शुरू करने के बाद उसे छोड़ते नहीं बनता. प्रेमचंद सहजवाला एक दुनियादारी के भीतर से घट रही स्थितियों और दिख रहे लोगों को करीब जाकर और काफी इतमीनान से देखते हैं ,  और इस क्रम में तरह-तरह की जुगतों में लगे लोग कॉमिक्स के किरदारों की तरह निकल-निकलकर आते रहते हैं. खुद बुद्धू भी इसका अपवाद नहीं है. वो जनसंघी नेता बलराज मधोक के भाषण के दौरान बेवजह  ‘ इंदिरा गांधी जिंदाबाद ’  का नारा लगा देता है और पुलिस वाले उसे पकड़ कर थाने ले जाते हैं. जिंदगी के जिस बेतुकेपन ( absurdity)  को समझने-समझाने में कई पश्चिम के ल

अरसे बाद कैदे हयात

मिर्जा गालिब के जीवन पर आधारित सुरेंद्र वर्मा का नाटक  ‘ कैदे हयात ’  हिंदी के श्रेष्ठ नाटकों में शुमार होने के बावजूद काफी कम खेला गया है। इसे हिंदी का नहीं बल्कि उर्दू का नाटक कहना चाहिए ;  और मुमकिन है कि भाषा की यह कठिनाई उसे हिंदी के रंगकर्मियों के लिए थोड़ा मुश्किल भी बनाती है। जो भी हो, इस भाषा में एक गहरी संपृक्ति और अर्थवत्ता की अच्छी लय है। ऐसा इसलिए है कि गालिब की मुफलिसी और मोहब्बत को यहां किसी रूमान में फंसने नहीं दिया गया है। जिंदगी की मजबूरियों में फंसे वे एक आधे-अधूरे गृहस्थ की तरह हालात से उबरने के रास्ते तलाशा करते हैं। यह रास्ता है  गवर्नर जनरल की काउंसिल में अपनी विरासत पर हासिल होने वाली पेंशन के मुकदमे के लिए कलकत्ता जाना। इस जाने और लौटने के दौरान हालात और बदतर हुए हैं। पहले महाजनों के तकाजे ही होते थे, अब ये तकाजे घर से निकलते ही उनकी गिरफ्तारी का सबब बन चुके हैं। ऐसे में दुनिया को बाजीचा-ए-अशफाल की तरह देखने वाला शायर घर की चौहद्दी में बेबस  इस बेबसी को महसूस किया करता है। कातिबा से उनका संबंध भी दुनियादारी से बेजार अपनी-अपनी बेचैनियों की वजह से है। गालिब बी

मन और मंच के खालीपन में प्रेम

मृत्युंजय प्रभाकर निर्देशित प्रस्तुति  ‘ ख्वाहिशें ’  एक बिल्कुल खाली मंच पर तीन पात्रों के दरमियान घटित होती है। यह बिल्कुल नए फ्लेवर का दो प्रेमी और एक प्रेमिका वाला प्रेम त्रिकोण है। नए जमाने के प्रेमी बगैर भावुकतावादी झामे के बिल्कुल दो टूक हैं। वे आपस में तू-तड़ाक करके बात करते हैं और सुविधा के मुताबिक झूठ भी बोलते हैं। नाटक को लिखा भी मृत्युंजय ने ही है ,  और स्पष्ट ही अपने वक्त की नब्ज को पकड़ने की अच्छी कोशिश की है। इसकी प्रेमिका जींस पहनने वाली वैसी उच्च-अभिलाषी ,  गर्वीली ,  एकल और स्वतंत्र नौकरीपेशा है जो देवदास नुमा प्रेमियों को लात मारकर भगा देगी। उसका प्रेमी प्रकटतः अपने आत्मविश्वास में जमाने को ठोकर पर रखने वाला लेकिन शराब पीकर अपनी देहाती अंतर्वस्तु की वजह से कुंठित हो जाने वाला बिगड़ैल है। इनके बीच एक लो प्रोफाइल तीसरा किसी सुदूर गांव से आ टपका है ,  जिसके पास खुद को साबित करने का एक ही अचूक हथियार है- उसकी देहाती विनयशीलता। इस तरह इन तीन पात्रों के बीच करीब डेढ़ घंटे तक कुछ-कुछ चलता रहता है। ऐसा लगता है कि मृत्युंजय डेढ़ घंटे तक एक स्थिति को ही बुनते रहते हैं ,  जि