संदेश

मार्च, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

गणिकागृह में एक रात

ज्ञानपीठ से पुरस्कृत कन्नड़ नाटककार चंद्रशेखर कंबार के नए नाटक शिवरात्रि को उनका सबसे अच्छा नाटक भी माना जा रहा है। चिदंबरराव जांबे निर्देशित मैसूर के निरंतर थिएटर ग्रुप की इसकी प्रस्तुति भारत रंग महोत्सव में देखी थी. किसी वजह से इसपर लिखा नहीं जा सका, पर तब से कहीं न कहीं यह दिमाग में अटकी रही है। इसका कथानक बारहवीं सदी के कल्याण राज्य के एक वेश्यालय में शिवरात्रि की रात को घटित होता है। कोठे की मुखिया साविंतरी के पास संगैय्या नाम का साधु-युवक आया है जिसे कोठे की सबसे सुंदर वेश्या कामाक्षी के साथ उसी के बिस्तर पर शिवलिंग-पूजा का अनुष्ठान करना है (इस पूजा के संदर्भ को समझने के लिए बारहवीं सदी में कर्नाटक में हुए शरणा आंदोलन को समझना होगा, जिसके जनक वासवन्ना ने शिवलिंग के एक प्रकार इष्टलिंग को ईश्वर के एक प्रतीक के रूप में हर मनुष्य की देह में अवस्थित माना, जिसकी वजह से कोई भी अस्पृश्य नहीं है। शरणा आंदोलन जाति व्यवस्था और सामाजिक अन्याय के विरोध का आंदोलन था)। यह पता चलने पर कि कामाक्षी कोठे की सबसे महंगी गणिका है, संगैय्या एक महंगा हार प्रस्तुत करता है। इस तरह उसके इच्छित अनुष्ठान

क्यों बेशर्म हैं पात्र ?

पिछले दिनों हुए  साहित्य कला परिषद के युवा नाट्य उत्सव में रोहित त्रिपाठी निर्देशित प्रस्तुति 'खामोश अदालत जारी है' का मंचन किया गया। विजय तेंदुलकर के इस नाटक की सीमा उसके परिवेश की पुरानी नैतिकताएं हैं, जिनमें वह अपने जमाने का स्त्री-विमर्श खड़ा करता है। उसकी दूसरी सीमा उसकी कृत्रिम मंचीय संरचना है। रिहर्सल के लिए जमा हुए पात्र असली के बजाय खेल खेल में एक नाटक खेलते हैं, जिसमें एक वास्तविक पात्र मिस बेणारे पर मुकदमा चलाया जाता है। उसका बुनियादी ढांचा इतना बनावटी है कि कथ्य की सारी उत्तेजना याकि उदघाटन वास्तविक शिद्दत के साथ खप पाने में एक दिक्कत महसूस करते हैं। हर पात्र उसमें अपने दुनियादार कलेवर से बाहर आया हुआ है. क्यों ? आखिर क्यों वह मिस बेणारे की फजीहत के लिए खुलेआम बेशर्म हो गया है ?  विजय तेंदुलकर अपने एक जबरिया मुहावरे के लिए पात्रों के अंदरूनी किरदार को बाहरी के तौर पर पेश करते हैं, जो कि कभी भी बहुत सहज मालूम नहीं देता। इसीलिए आज तक देखी  ‘ खामोश अदालत …’  की तमाम प्रस्तुतियां कभी भी बहुत आश्वस्तकारी महसूस नहीं हुईं। लेकिन युवा निर्देशक रोहित त्रिपाठी की तारीफ करन

नाटक का पात्र है वातावरण

कुछ नाटक अपनी प्रकृति में ही बहुत नफीस और नाजुक होते हैं। जरा-सा भी बेलिहाज छूने से उनकी त्वचा में पड़ा निशान बिल्कुल साफ दिखने लगता है। जैसे कि नाटक आषाढ़ का एक दिन। चेखव के नाटकों की तरह वह एक वातावरण के साथ दर्शक की चेतना में प्रवेश करता है। फिल्म राशोमन के उत्तरार्ध में जैसे तेज बारिश का धीरे-धीरे थमना कहानी सुन और सुना रहे पात्रों के मानसिक विरेचन की एक व्यंजना जैसी जान पड़ती है ,  उसी तरह यहां बादलों की गड़गड़ाहट और बारिश का बैकड्रॉप विषयवस्तु के द्वंद्व को थोड़ा तरल बनाता है। एक द्वंद्व जिसे हम वातावरण की स्निग्धता के पार से देख रहे होते हैं। सूप, आंगन, अलगनी, घड़ा, चौकी- ये सब साधारण चीजें इसे बहुत स्वाभाविकता से आकार देती हैं। लेकिन फिर भी इस सारे वातावरण को सक्रिय करने वाला तत्त्व उसके संवाद ही हैं। मोहन राकेश ने कभी कहा था-   ‘ रंगमंच में बिंब का उदभव शब्दों के बीज से होता है ’ । यह नाटक इसका एक सही उदाहरण है। दृश्यविधान के सीमित अवयव यहां शब्दों के जरिए जीवित होते हैं। भाषा का एक सही और सटीक चयन, जिसमें कोई असंयम या अतिरिक्तता का कोई नुक्स दिखाई नहीं देता। वह धीरे-धीरे बेह