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फ़रवरी, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

जफर पनाही और हम

इन दिनों ईरान में सरकारी कैद भुगत रहे फिल्मकार जफर पनाही ने अपनी फिल्म ऑफसाइड सन 2006 में बनाई थी. उसी दौरान ईरान और बहरीन के बीच हुए विश्वकप फुटबाल के एक क्वालीफाइंग मैच की पृष्ठभूमि में इसमें कुछ लड़कियों की कहानी कही गई है। ये लड़कियां भी फुटबाल मैच देखना चाहती हैं ,  पर ईरान का कानून इसकी इजाजत नहीं देता। वे छुप-छुपाकर और छद्मवेश में स्टेडियम में घुसने की कोशिश करती हैं, पर पकड़ी जाती हैं। भीतर मैच चल रहा है, और इधर स्टेडियम के बाहर के गलियारे में मैच की उत्तेजना है और पुलिसवालों के पहरे में लड़कियां हैं। सिर्फ ढाई हजार डॉलर की लागत से बनी इस फिल्म के बहुत से हिस्से को वास्तविक लोकेशन पर सचमुच के समय में जाकर फिल्माया गया। अपने शुरुआती दिनों में वितोरियो डी सिका की फिल्म बाइसिकिल थीफ से बेहद प्रभावित रहे जफर पनाही द्वारा सिर्फ 39 दिनों में बनाई गई इस फिल्म के बनने की कहानी काफी दिलचस्प है। पनाही को फिल्म के विषय को लेकर विवाद की आशंका पहले से ही थी, लिहाजा उन्होंने इसकी इजाजत देने वाले मंत्रालय में एक झूठी स्क्रिप्ट भेजी, जिसमें लड़कियों की जगह पर लड़के दिखाए गए थे। लेकिन चूंकि

बरेली में मोहनदास

उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में डॉ. ब्रजेश्वर एक जाने-माने ऑर्थोपीडिक सर्जन हैं। करीब एक-डेढ़ दशक पहले जब वे दिल्ली के मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज में पढ़ते थे उसी दौरान पड़ोस के मंडी हाउस में नाटक देखने के शौक ने कालांतर में उन्हें एक रंग-आयोजक बना दिया। वे पिछले कई साल से हर बरस जनवरी के महीने में शहर में एक नाट्य उत्सव का आयोजन करते हैं, उनकी अपनी रंग विनायक नाम की एक रेपर्टरी है, और अब उन्होंने दो सौ सीट की क्षमता वाला एक प्रेक्षागृह भी बना लिया है। यह सारा कुछ उन्होंने अपने निजी साधनों से किया है। वे एक सरल, खुशमिजाज और खासे ऊर्जावान इंसान हैं। दिन में ओपीडी, शाम को नाटक, और फिर वहां से वे देर रात ऑपरेशन थिएटर में पहुंचते हैं। उन्हें हर रोज चार-पांच ऑपरेशन करने होते हैं। इस तरह वे सुबह करीब पांच बजे सोने जा पाते हैं। रंगमंच से संबंधित उनके पूरे उपक्रम की एक आलोचना यह है कि इसे सिर्फ शहर के अभिजात तबके को ध्यान में रखकर बनाया गया है।  वहां   आम लोगों के प्रवेश की कोई गुंजाइश नहीं है। प्रकटतः और प्रथमदृष्टया यह आरोप सही भी मालूम देता है। प्रेक्षागृह के परिसर में एक नए जमाने की महंगी क

तीन प्रस्तुतियां, तीन शैलियां

अंग्रेजी और हिंदी थिएटर में समान रूप से सक्रिय सोहैला कपूर के रंगकर्म में हमेशा एक पेशेवर साफ-सुथरापन होता है। यह चीज भारत रंग महोत्सव में उनकी अंग्रेजी प्रस्तुति   ‘ मिस जूली ’   में भी थी। कुल तीन पात्रीय इस नाटक में असली कथानक मुख्य दो ही पात्रों के बीच घटित होता है। यह सवा सौ साल पहले के यूरोप का परिवेश है ,  जहां रईस काउंट की बेटी जूली और उसके यहां काम करने वाले ज्यां अपने बंधे यथार्थ से बाहर निकलने की कुछ योजनाएं बनाए हुए हैं। पूरा नाटक रसोई की सेटिंग में एक रात के दौरान घटित होता है। दोनों पात्र अपने-अपने यथार्थ से उबरना चाहते हैं ,  पर उन दोनों का संबंध भी इतना सीधा नहीं है। उनके वर्गीय या लैंगिक अहं लगातार एक किस्म के नाटकीय उतार-चढ़ाव की वजह बनते हैं। यह पूरी तरह पीरियड-प्रस्तुति नहीं है ,  उसमें हल्का-सा समकालीनता का पुट भी है। निर्देशिका मानती हैं कि आजादी की कामना और सामाजिक निषेधों का यह पाठ आज की भारतीय स्त्री के नजरिए से काफी समसामयिक है। लेकिन उनकी इस राय के बावजूद भाषा के तौर पर अंग्रेजी भारतीय यथार्थवाद की चीज नहीं है ,  और मंचित होते हुए एक अंतराल हमेशा बना ही रह

सारा : एक आत्महंता विद्रोह

मेरे जज्बे अपाहिज कर दिए गए हैं मैं मुकम्मल गुफ्तगू नहीं कर सकती मैं मुकम्मल उधार हूं मेरी कब्र के चिरागों से हाथ तापने वालो ठिठुरे वक्त पर एक दिन मैं भी कांपी थी     अपनी नज्म  ‘ आंखें सांस ले रही हैं ’  में एक मुकम्मल बेचैनी का बयान करने वाली ये सतरें हैं पाकिस्तानी शायरा सारा शगुफ्ता की। सारा ने 4 जून 1984 को साढ़े 29 साल की उम्र में खुदकुशी कर ली थी। इससे पहले वह ऐसी चार कोशिशें और कर चुकी थी। आखिर वो कैसी जिंदगी थी जिसकी शिद्दत को बार-बार इस नतीजे तक पहुंचने के लिए मजबूर होना पड़ा। नाटककार शाहिद अनवर ने इसी के ब्योरे अपने एकल नाट्य  ‘ सारा ’  में समेटे हैं, जिसकी प्रस्तुति पिछले दिनों जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कन्वेंशन सेंटर में की गई। लगभग खाली मंच पर अभिनेत्री सीमा आजमी इस पाठ को बताती और चित्रित करती हैं। उनके बयान में नाटकीयता खास नहीं है, पर इतना साफ-सुथरा वह जरूर है कि देखने वाले को पूरा सिलसिला समझ आ जाए। अव्वल तो सारा शगुफ्ता की छोटी-सी जिंदगी खुद में ही खासी नाटकीयता से भरी रही है, फिर शाहिद अनवर ने भी अपनी तरतीब में अपनी प्रोटागोनिस्ट की बेबाकी को एक र

पेंटिंग के जैसा दृश्य

विभूतिनारायण राय के उपन्यास   ‘ प्रेम की भूतकथा ’   का कथानक एक पहाड़ी परिवेश के अतीत और वर्तमान में मिले-जुले तौर पर आकार लेता है। उपन्यास पर दिनेश खन्ना निर्देशित इसी शीर्षक प्रस्तुति में मंच सज्जा पर काफी काम किया गया है। यह एक पहाड़ी शहर का नजदीकी लैंडस्केप है ,  जिसमें ऊंचाई-नीचाई पर बने ढलवां छतों वाले घर ,  उनके रोशनदानों और खिड़कियों से छनकर आती रोशनी ,  कतार में खड़े पेड़ ,  कभी-कभी हल्की धुंध वगैरह का मंजर काफी ठीक से बनाया गया है। मंच पर प्रायः हल्की नीली रोशनी है ,  जिसमें पुराने ढंग की पोशाकों में पात्र अपने नॉस्टैल्जिया में एक रूमान बनाते हैं। कथानक का सूत्रधार सन 1909 में मसूरी में हुई एक हत्या के रहस्य को सुलझाने की कोशिश में उसके मृत पात्रों से बात करता है। इस तरह एक प्रेम ,  उसकी वर्जना और इस वजह से जन्म लेने वाली हिंसा और सस्पेंस को दिखाने की कोशिश की गई है। ऊपन्यास कुछ इस मुहावरे का मालूम देता है जिसमें यथार्थ पर आभासीपन का वर्क चढ़ा हुआ है। धीरे-धीरे इस वर्क को हटाने में कहानी और उसका माहौल निकलकर आते हैं। लेकिन जैसा कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से जुड़े लोगो

एक जैसा एशिया

अजरबैजान की प्रस्तुति   ‘ मस्यर जोर डान एंड दरवेश मस्ताली शेख ’   उन्नीसवीं सदी के ईरानी नाटककार एम. एफ अखुनद्जादेह का नाटक है ,  जिन्हें ईरान में आधुनिक साहित्यिक आलोचना का शुरुआतकर्ता माना जाता है। वे साहित्य में यथार्थवाद के हिमायती थे ,  और उन्होंने तत्कालीन पर्शियन साहित्य को अपने वक्त की जरूरतों को संबोधित करने में नाकाम रहने के लिए जमकर कोसा था। फिरुद्दीन महारोव निर्देशित यह प्रस्तुति देखते हुए किसी को यह गलतफहमी हो सकती है कि यह कहीं कोई भारतीय प्रस्तुति तो नहीं। पूरा एशिया एक जैसी फितरतों में बंधा हुआ है। नाटक में एक फ्रेंच वैज्ञानिक महाशय डोन जान अजरबैजान के काराबाख में एक जड़ी के अनुसंधान के लिए आया हुआ है। यहां उसकी दोस्ती गाटमखान आगा के भतीजे शाहबाज बेक से हो जाती है। वह उसे उच्च शिक्षा के लिए फ्रांस ले जाना चाहता है। पर गाटमखान की बीवी को इसपर सख्त ऐतराज है क्योंकि उसकी बेटी की शादी शाहबाज बेक से होने वाली है। उसने पेरिस की ऐसी तस्वीरें देखी हैं जिनमें बेशर्म   ‘ फ्रेंकिश ’ औरतें सिर और चेहरा उघाड़े मर्दों के साथ बैठी हैं। अपनी हर कोशिश नाकाम होते देख वह दरवेश मस्ताली