कव्वाली के इतिहास पर नाटक


पिछले सप्ताह दिल्ली के इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेंटर में नाट्य प्रस्तुतित लश्कर-ए-कव्वाली देखने को मिली। युवा रंगकर्मी दानिश इकबाल के निर्देशन में यह कव्वाली के इतिहास पर एक डाकुड्रामा थी। मंच पर कव्वाली स्वयं एक नायिका के रूप में बीच-बीच में आकर अपने बारे में बताती है। इसके अलावा और बहुत कुछ बताने के लिए एक बुजुर्ग फकीर है। कुछ कव्वालों और कव्वाली की तारीख के सादिया देहलवी जैसे जानकारों के इंटरव्यू की रिकॉर्डिंग के टुकड़े भी हैं। और इस सबको एक नाटकीय रोचकता से जोड़े रखने के लिए मंच पर एक जमाल और कमाल हैं। प्रस्तुति के आलेखकार विजय सिंह ने इस पूरे सिलसिले का एक अच्छी तरतीब में संयोजन किया है।
कव्वाली कहती है- मेरा जन्म हुआ उस अस्ल सच्चाई को जानने के लिए। सबसे बड़ी सच्चाई अनहद का दीदार करना है। इसके लिए तालिबे इल्म होने से पहले तालिबे इश्क हो जाओ। बुजुर्ग फकीर कहता है- कव्वाली की तारीख में जाते हुए बहस में मत पड़ना बेटेपर बहसबाज जमाल और कमाल अपनी खुर्दबीनी से कहां बाज आने वाले। दाढ़ी सहलाते हुए कमाल सवाल करता है- ये सूफी को सूफी क्यों कहते हैं।
इस तरह तारीख की बाकायदगी के बीच इस छोटी-मोटी चुहुल से होते हुए बात आगे बढ़ती है। बताया जाता है कि पैगंबर साहब के भी आने के पहले कव्वाली अस्तित्व में आ चुकी थी। शुरू में सूफियों ने अम्न और सच्चाई का पैगाम पहुंचाने के लिए मौसिकी और समा का सहारा लिया। कि दुनिया में पौने दो सौ से भी ज्यादा सूफी संप्रदाय हैं। छह सूफी सिलसिलों में से चिश्तिया और कादरी सिलसिलों में कव्वाली की रवायत रही है, पर नक्शबंदी सिलसिले ने कव्वाली को नाजायज, यहां तक कि हराम माना। शुरू में फारसी कव्वाली गाने वालों ने बाद में यहां की भाषा को अपनाना शुरू किया। अमीर खुसरो बाबा फरीद आदि का अहम योगदान रहा। यह अमीर खुसरो ही थे जिन्होंने यहां की ढोलक को दो हिस्सों में कर तबले की ईजाद की। और महबूबे इलाही हजरत निजामुद्दीन औलिया को कव्वाली से बहुत मोहब्बत थी। उन सूफियों ने कहा- तुम सच और झूठ के चक्कर में मत पड़ो. उस एक के  सिवाय बाकी सब झूठ है, इसलिए सारे सवालों को तर्क कर दो। लेकिन वक्त के साथ कव्वाली की सूरत भी बदली। अब इबादत की जगह मर्द और औरत पर छींटाकशी की जाने लगी। कुछ मशहूर सिनेमाई कव्वालियों के अंश पीछे के परदे उभर आए हैं। ये इश्क इश्क है इश्क इश्क...। नायिका कव्वाली कहती है- मैं अपना अक्स देखती हूं तो खुद को पहचान ही नहीं पाती।
प्रस्तुति सिर्फ कव्वाली की तारीख को ही नहीं बताती, बल्कि उसके प्रसंग से देश के इतिहास की कई बातों को भी उठाया गया है। यह इस्लाम का सूफी स्वर ही था जिसने निचली जातियों को उसकी ओर उन्मुख किया। ऐसा ही एक पात्र अपने पुराने धर्म की याद दिलाए जाने पर कहता है- आज जब इन सूफियन ने हमें अपनाया है, तब हमें याद दिला रहे हो कि हमारा धर्म क्या है। इस इतिहास के जिक्र से जुड़े बहुत से पात्र छोटे-छोटे दृश्यों में रह-रह कर प्रस्तुति में दिखाई देते हैं और इस तरह एक दृश्यात्मक वैविध्य प्रस्तुति में बना रहता है।
पीछे के प्लेटफॉर्म पर राजेश कुमार पाठक के साथ प्रस्तुति का संगीत पक्ष बैठा है। दानिश इकबाल की दाद देनी होगी कि उन्होंने एमेच्योर थिएटर के साधनों से यह रुचिकर प्रस्तुति तैयार की है। उदाहरण के लिए विपिन चौधरी जैसी शौकिया अभिनेत्री भी एक शाही घर की स्त्री की भूमिका में पर्याप्त संयत ढंग से प्रस्तुति में शामिल दिखती हैं। गायकों और संगीतकारों ने भी अपने स्वरों में कव्वाली और उससे इतर सूफियानों तानों को बखूबी अंजाम दिया है। यहां उल्लेख करना जरूरी है कि दिल्ली के रंगमंच में दानिश इकबाल नाम की दो शख्सियतें इन दिनों सक्रिय हैं। एक नाटककार दानिश और दूसरे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के स्नातक, जिनकी मुख्य पहचान अभिनेता की रही है। इस प्रस्तुति के निर्देशक वही अभिनेता दानिश इकबाल हैं। उनकी प्रस्तुति विषय को बहुत नपेतुले ढंग से नहीं उठाती, बल्कि उसमें बात को सरल तरह से कह देने का भोलापन है, और यही उसकी विशेषता बन गई है। विषय की लय और उसकी तथ्यात्मकता दोनों एक रौ में बंधे हुए पेश होते हैं।     

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

भीष्म साहनी के नाटक

न्यायप्रियता जहाँ ले जाती है

आनंद रघुनंदन