टोबा टेकसिंह का पूरा सच


रंगकर्मी राजेश बब्बर के पिता का जन्म बंटवारे से पहले लायलपुर जिले के टोबा टोकसिंह में हुआ था। वही टोबा टेकसिंह जो मंटो की कहानी के सरदार बिशनसिंह का घर था। राजेश बब्बर ने इसी शीर्षक अपनी प्रस्तुति में मंटो की कहानी में अपना एक पूर्वार्ध जोड़ा है, जिसमें बिशनसिंह देश के बंटवारे से पहले घर और खेत का बंटवारा भोगता है, और दरअसल इसी बंटवारे के क्रम में वह पागल हुआ। बंटवारा अपनी जिंदगी में खोए बिशनसिंह के लिए एक व्यवधान की तरह पेश आता है। उसने इसके बारे में कभी सोचा नहीं था। इस तरह यह पूर्वार्ध मूल कहानी को ज्यादा आसान और युक्तिपूर्ण बनाता है। मंटो की कहानी प्रकटतः जितनी नाटकीय जान पड़ती है, मंच पर वह उतनी नाटकीय बन नहीं पाती है। ज्यादातर प्रस्तुतियों में देखा है कि बंटवारे की विडंबना बिशनसिंह के किरदार में एक अतिनाटकीय उपक्रम बनकर रह जाती है। स्टेज के दृश्यात्मक नैरेटिव में बिशनसिंह का पागलपन उस वृहत्तर ट्रैजडी को सामने नहीं ला पाता, जिसका वह खुद एक रूपक है। इस लिहाज से राजेश बब्बर का पूर्वार्ध किरदार की एक लय बनाता है। मंच पर बिशन सिंह पुरानी रौ के एक खांटी चरित्र के तौर पर नजर आता है, जिसे अभिनेता शरण मक्कड़ ने सही मिजाज में समझा है। पागलखाने में बाकी पागलों की चुहुलबाजी के बीच उसका सिर्फ एक ही सवाल होता है- टोबा टेकसिंह कित्थे यां?’.
बिशनसिंह की बेटी प्रस्तुति में सूत्रधार की भूमिका में है। वह मंच के एक छोर पर स्पॉटलाइट में बीच-बीच में कहानी के पूरे सिलसिले को बयान करती है, जबकि इसकी कोई जरूरत नहीं थी, स्थितियां खुद में ही स्पष्ट हैं। इसके अलावा प्रस्तुति में इतने ज्यादा फेडआउट और फेडइन हैं कि बार-बार लय को तोड़ते हैं। जाहिर कि प्रस्तुति को कुछ अनावश्यक दृश्यों को हटाकर थोड़ा संपादित किए जाने की जरूरत है। मंच पर प्रॉपर्टी का ज्यादा तामझाम नहीं है। पात्रों की वेशभूषा ही दृश्य का असली तत्त्व है। गांव के दृश्य में पगड़ी कुर्ता-पाजामा या मुसलमानी टोपी वाले किरदार दिखते हैं। पागलखाने का दृश्य अपेक्षाकृत ज्यादा बहुरंगी है। कई तरह के पागलों की हरकतों के जरिए एक रोचकता बुनी गई है। हालांकि ये चालू किस्म के चरित्रांकन में इतने सारे किरदार हैं कि उनकी ठीक से पहचान नहीं बन पाती। जबकि इनपर ठीक से काम किया जाता, तो स्थिति की विडंबना का यह ज्यादा बेहतर विवरण बन सकते थे। दृश्यों को थोड़ा और चुस्त होना चाहिए था। एक दृश्य में पुलिसवाला कुछ इस अंदाज में मौजूद दिखता है मानो लापरवाही में उसकी गलत एंट्री हो गई हो और इंप्रोवाइजेशन के जरिए वह इसे दुरुस्त कर रहा हो। बाद के दृश्य में वही पुलिसवाला एक बड़े पुलिस अधिकारी के रूप में दिखता है। प्रस्तुति इन कुछ चूकों के बावजूद अपने देसीपन में बांधे रखती है। असली बात यह है कि उसका केंद्रीय किरदार बिशनसिंह उसमें वाजिब तरह से मौजूद है।
प्रतिबिंब कला दर्पण की यह प्रस्तुति उसके सालाना नाट्य उत्सव में एलटीजी प्रेक्षागृह में खेली गई। प्रतिबिंब कला दर्पण दिल्ली के उन इक्का-दुक्का थिएटर ग्रुपों में है जो अपने सीमित निजी साधनों के बावजूद इस फेस्टिवल का आयोजन पिछले दो साल से कर रहा है। इसी क्रम में संस्था की ओर से दिए जाने लाइफटाइम एचीवमेंट और युवा रंगकर्मी पुरस्कार क्रमशः वरिष्ठ नाट्य निर्देशक राजिंदरनाथ और रंगमंच के अभिनेता श्रीकांत को दिए गए। प्रस्तुति के दौरान 12 साल की उम्र में टोबा टेकसिंह का अपना घरबार छोड़ने को मजबूर हुए निर्देशक राजेश बब्बर के पिता भी प्रेक्षागृह में मौजूद थे, जिनकी अपनी जन्मभूमि से जुड़ी बहुत सी यादें इस प्रस्तुति के आकार लेने की वजह बनीं।

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