संदेश

2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ढाई साल का युग

राजेन्द्र जी से मेरा साथ उनकी 84 बरस की उम्र के अंतिम ढाई सालों में रहा. इन ढाई में से बाद वाले एक-डेढ़ साल में हमारी अच्छी घनिष्ठता हो गई थी. यानी वह खुलापन और भरोसा आ गया था कि हम आपस में दुनियाभर के संदर्भों पर बेलाग हो सकें. राजेन्द्र जी खुलेपन के बगैर नहीं रह सकते थे, और बढ़ती उम्र और शारीरिक असमर्थताओं ने उनके भरोसे की एक भावनात्मक परिधि बना दी थी. इस परिधि में बहुत से लोग अपनी-अपनी वजहों से घुसना चाहते थे, पर जिसपर वस्तुतः दो एक लोगों का ही ठोस ढंग से कब्जा था. राजेन्द्रजी इन घुसने वालों और कब्जा बनाए रखने वालों के रोमांचक खेल में अंपायरिंग करते हुए लगभग हमेशा ही गलत फैसले लिया करते थे. ऐसा वे जानबूझकर नहीं करते थे, बल्कि ये गलत फैसले उनमें ‘ इनहेरेंट ’ थे. उनमें उलझावों में जीवन गुजारने की एक अदभुत क्षमता थी. इस तरह वे विपत्तियों से घबराए बगैर निरंतर सक्रिय बने रहते थे. इस लिहाज से यह उपयुक्त ही था कि मैं भावनात्मक के बजाय उनके ज्ञानात्मक भरोसे की परिधि में ही कहीं रहता था. वैसे जहाँ तक भरोसे की बात है, तो राजेन्द्रजी के साथ जीवन का लंबा समय गुजार चुके बहुत से लोग खुद उन्हें

उसूलों वाले रंजीत कपूर

महफिल सज चुकी है। गिलासें शराब डाले जाने का इंतजार कर रही हैं। रंजीत जी बिस्तर पर तकिया का टेक लिए बैठे हैं। अभी कुछ देर पहले गेस्ट हाउस में उनके कमरे में पहुँचे हम प्रायः एक श्रोता की भूमिका में हैं। वे बताते हैं कि उन्होंने अब दिल्ली में ही रहने का तय कर लिया है, और सिनेमा छोड़कर अब वे पूरी तरह थिएटर ही करेंगे। सिनेमा में बहुत सी प्रसिद्ध और सफल फिल्मों के पटकथा-लेखक होने और बतौर निर्देशक  ‘ चिंटूजी ’  बनाने के बाद उनका मन अब वहाँ नहीं लग रहा। सिनेमा की भीड़ में इतने साल खर्च करने के बाद भी कुछ है जो उन्हें रास नहीं आया। थोड़ा भावातिरेक में वे कहते हैं- थिएटर में मुझे इतना प्यार मिला है, इसलिए मैं अब पूरी तरह इसी में वापसी कर रहा हूँ। यही मेरी अपनी जगह है। मुझे याद आता है कि करीब साल भर पहले जब उन्हें संगीत नाटक अकादेमी पुरस्कार मिला था, जो कि उन्हें बहुत पहले मिल जाना चाहिए था, तो उन्होंने फोन पर पूछा था कि क्या उन्हें यह पुरस्कार लेना चाहिए, तो मैंने पुरस्कार की रकम जानने के बाद कहा था कि उन्हें यह ले लेना चाहिए। जानने वाले जानते हैं कि रंजीत कपूर के खाते में न वाजिब पुरस्कार हैं

जन्नत में जम्हूरियत का घपला

अरसे बाद मुश्ताक काक ने दिल्ली में कोई प्रस्तुति की है। श्रीराम सेंटर रंगमंडल के लिए व्यंग्यकार शंकर पुणतांबेकर की रचना पर आधारित उनकी प्रस्तुति  ‘ डेमोक्रेसी इन हेवन ’ अच्छी-खासी रोचक है। एक नेता अपनी एक असिस्टेंट और चमचे के साथ एक रोड एक्सीडेंट में मारा जाता है। तीनों यमराज के दरबार में और फिर वहां कुछ घपला करके स्वर्ग पहुंच जाते हैं। इस तरह स्वर्ग के सात्विक माहौल में इन तीन घपलेबाजों की उपस्थिति और भावभंगिमाओं का सिलसिला देखने लायक है। अपनी फितरत के मारे तीनों अली, बली, कली में से कली अदा फेंककर कहती है-  ‘ फिक्र मत करो सर, मैं चित्रगुप्त को ऐसा कांटा लगाऊंगी कि... ’  उधर ऐंठा हुआ नेता अपनी आदत के अनुसार आरोप लगा रहा है कि यमराज कायर है, उसने पीछे से मारा। तीसरा चमचा बली है, जो नेता द्वारा अपना कान उमेठे जाते ही हांक लगाने लगता है- ओए चाबी बनवा लो, ताले बनवा लो। हिंदी-व्यंग में पारलौकिक दुनिया में जा पहुंचने की फंतासी का इस्तेमाल खूब हुआ है। थिएटर को स्थिति-वैचित्र्य का यह कंट्रास्ट खूब रास भी आता है। हरिशंकर परसाई के  ‘ इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर ’  से लेकर रेवतीशरण शर्मा की 

अनर्थ के जंगल में

रंगकर्मी हनु यादव एमेच्योर साधनों में गुरुगंभीर विषयों को मंच पर पेश करते रहे हैं। बीते दिनों उन्होंने   ‘ वेटिंग फ़ॉर गोदो ’   का मंचन किया। उनके काम और रंग-ढंग में एक बोहेमियन आत्मविश्वास बहुत साफ झलकता है। शायद इसी की बदौलत वे अपनी निपुणता को कई तरह की लापरवाहियों में गर्क किया करते हैं।   ‘ वेटिंग फॉर गोदो ’   की इस प्रस्तुति में जाने क्यों उन्होंने बैकड्राप के परदे को पूरी तरह हटवा दिया था। इससे ग्रीनरूम की तरफ खुलने वाले दरवाजे से आ रही रोशनियां और बैकस्टेज का नजारा गँवारू ढंग से मंच पर घुसपैठ किए हुए था। इस खीझ पैदा करने वाले मंजर में जब नाटक शुरू होता है तो गोगो या डीडी में से कोई एक आवश्यकता से कहीं बहुत देर तक अपना जूता उतारा करता है। इस तरह   ‘ कुछ न किए जा सकने ’   की व्यर्थता को दर्शाने वाली स्थिति एक चालू किस्म की नाटकीय युक्ति में तब्दील हुई रहती है। प्रस्तुति देखते हुए लगता नहीं कि उसके अभिनेताओं ने नाटक की मंशा को आत्मसात करने की कोई चेष्टा की है- इस वजह से उनके द्वारा बोले जा रहे संवाद स्थितियों के मंतव्य को सामने लाने के बजाय अक्सर प्रलाप जैसी शक्ल में नाटक की एब्स

अपने जैसे अजनबियों में

युवा रंगकर्मी हैप्पी रंजीत के लिखे और निर्देशित किए नाटक  ‘ फैमिलियर   स्ट्रेंजर ’  का पुरुष  अपनी लिवइन पार्टनर से संबंध को प्यार के बजाय  ‘ ग्रेट फ्रेंडशिप ’  कहता है । फिर एक रोज वह अपनी फिल्म में काम कर रही हीरोइन यानी एक अन्य स्त्री से पूछता है- तुम मेरे होने वाले बच्चे की मां बनोगी ?  उसके मुताबिक हर इंसान, जानवर, पेड़-पौधे की लाइफ का एक ही मकसद होता है- प्रोक्रिएशन। वह कहता है- मेरे लिए कुछ भी सही और गलत नहीं....एक रिश्ते के होते हुए अगर मेरे मन में तुम्हारे लिए अट्रैक्शन आ गया है तो यह भी गलत है, पर यह तो हो गया है। इस पुरुष को हर आदर्श चीज से नफरत होती है,  ‘ क्योंकि वो झूठ है और मुझे सच्चाई से प्यार है ’ । उसका मानना है कि कोई रिश्ता जब तक काम कर रहा है तब तक ठीक, वरना उससे अलग हो जाना चाहिए। इसमें अच्छे-बुरे का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि जो मेरे लिए अच्छा है वह शायद दूसरे के नजरिए से बुरा हो। वह एक मुकम्मल आजादी का कायल है, जो तभी मिलती है जब आप किसी से जुड़े नहीं होते। ऐसी आजादी होगी तभी आप समाज के लिए कुछ कर पाएँगे.  उसे एक अपने जैसी स्त्री नूरा मिलती है जो एक प्रसिद्ध ले

फैज के बारे में

फैज अहमद फैज की जन्मशताब्दी के प्रसंग से पिछले एक-डेढ़ सालों में उनपर केंद्रित कई नाटक खेले गए हैं ;  बावजूद इसके कि फैज के किरदार में कोई  ‘ नाटकीय ’  पहलू खास नजर नहीं आता। इन प्रस्तुतियों को देखने से जितना समझ आता है वह ये कि वे कोट-पैंट पहनने वाले और अमूमन सुलझी शख्सियत के इंसान थे। न कि दुनिया की बेढंगी चालों से बेजार पी-पी कर अपना कलेजा गर्क करने वाले  मंटो की तरह के  शख्स। फैज की शायरी भी- जितना मालूम देता है- उदभावनाओं की शायरी है। न वे मजाज हैं, न शमशेर...और भुवनेश्वर तो बिल्कुल ही नहीं ;  संयोग से जिनकी जन्म शताब्दियाँ भी इधर हाल में बगैर किसी संस्मरण के चुपचाप गुजरी हैं। अपनी रौ में सांसारिकता से बेखुद अदीबाना शख्सियत फैज की नहीं थी। वे एक चुस्त, चौकन्ने, जुझारू, प्रगतिशील और रोमांटिक तबियत के व्यक्ति थे। रामजी बाली लिखित, निर्देशित, अभिनीत प्रस्तुति  ‘ मुझसे पहले सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग ’  फैज के जीवन पर देखी कुछ पिछली प्रस्तुतियों से ज्यादा चुस्त मालूम देती है। उन्हें इस साल संगीत नाटक अकादेमी ने नाट्य लेखन के लिए उस्ताद बिस्मिल्ला खां युवा पुरस्कार से सम्मानित किया

बात पाँचवें वेद की

रंगकर्मी दंपती वीके और किरण की रंग शैली का प्रवाह देखने ही बनता है। अपनी नई प्रस्तुति ‘ रहस्य पंचम वेद का ’ में उन्होंने नाटक के इतिहास और सिद्धांत को मंच पर पेश किया है, और वो भी बच्चो के एक खासे बड़े दल के साथ। रामजस स्कूल , पूसा रोड के छात्रों की इस प्रस्तुति में मंच पर जमा बच्चे नाटक खेलने के बारे में बात कर रहे हैं। उनका टीचर एक चीनी कहावत के बारे में बताता है कि सुनी हुई बातें भूल जाती हैं , देखी हुई याद रहती हैं , और की हुई समझ आती हैं। एक बच्चा बताता है कि उसके पुराने स्कूल के प्रिंसिपल नाटक के खिलाफ थे कि इससे पढ़ाई का हर्जा होता है। नाटक बनाम पढ़ाई के इस झगड़े में मूँछ लगाए बाप बेटे को डाँट रहा है, पर बेटा भी गुस्सैल तेवरों वाला है। उसके गुस्से में कहे ‘ ...पापा !’ के साथ सीन कट हो जाता है, और पात्रों का हुजूम एक कोरस के लिए प्रस्तुत हो जाता है : ‘ रंगमंच है दुनिया सारी / हम सब केवल अभिनेता ’ । पीछे स्क्रीन पर शेक्सपीयर की तस्वीर उभरी हुई है। शेक्सपीयर ने ही दुनिया को एक स्टेज बताया था, जहां बच्चा पैदा होते ही तरह-तरह के ड्रामे देखने लगता है। एक सास-बहू गोद में एक नवज

दोहराव और रूपांतरण

शायद सरकारी धन पर निर्भरता के कारण या जिस भी वजह से हिंदी रंगमंच का परिदृश्य कई बार एक रस्मी कवायद जैसा लगता है। वही पुराने नाटक बार-बार खेले जाते हैं, जिनके निर्देशकीय में निर्देशकगण बताते हैं कि कैसे यह फलां नाटक आज के यथार्थ के लिए भी उतना ही समीचीन है। इस दोहराव के अलावा हिंदी रंगमंच का दूसरा प्रतिनिधि तत्त्व  ‘ रूपांतरण ’  है। कोई किसी कहानी का रूपांतरण कर रहा है, कोई उपन्यास का, कोई किसी पुराने नाटक का ही। पिछले दिनों देखी कुछ प्रस्तुतियां भी इसी सिलसिले में थीं।  खूबसूरत बला  :    राधेश्याम कथावाचक लिखित इस पारसी नाटक का यह ताजा संस्करण मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय के सौजन्य से था। भोपाल के रवींद्र भवन में हेमा सिंह के निर्देशन में यह वहाँ के छात्रों की प्रस्तुति थी। संयोग से इसी नाटक की अतीत में देखी दो अन्य प्रस्तुतियाँ भी हेमा सिंह के निर्देशन में अलग-अलग छात्र समूहों की ही थीं। इस नाटक के कुल गठन में संप्रेषण की कोई बुनियादी खामी है। नाटक में कथानक का कोई ठोस याकि समेकित प्रभाव नहीं बन पाता ;  और अंत में सिवाय शम्सा के चरित्र के कुछ भी याद नहीं रह जाता। शम्सा एक नायाब किरद

युद्ध के विरोध में ब्रह्मचर्य

वरिष्ठ नाट्य निर्देशक वामन केंद्रे लिखित और निर्देशित प्रस्तुति ‘ नो सेक्स प्लीज ’ एक काल्पनिक कथावस्तु पर आधारित प्रहसन है। एक राजा है जो युद्ध का प्रणेता है। दर्शक शुरू के दृश्यों में उसके द्वारा लड़े गए युद्धों पर उसका हास्यजनक संभाषण सुनते हैं, जिसमें वह हर चौराहे पर युद्ध देवता के पुतले खड़े कर देने का आह्वान करता है और अपने सैनिकों से कहता है- घाव तुम झेलोगे, वेदना हम झेलेंगे ; खून तुम्हारा निकलेगा, आँसू हमारे। लेकिन चूँकि युद्ध हमेशा ही विभीषिका को जन्म देता है, जिसकी शिकार बनती हैं स्त्रियाँ. नगर की स्त्रियाँ तय करती हैं कि अब वे ऐसा नहीं होने देंगी ; और संगठित गृहणियाँ और गणिकाएँ मिलकर पुरुषों से कह देती हैं- नो सेक्स प्लीज। नाटक का कथासूत्र एरिस्टोफेनस के लिखे एक प्राचीन ग्रीक प्रहसन से लिया गया है ; ऐसा छोटा  प्रहसन जिसे प्रसिद्ध ग्रीक त्रासदियों के मध्य कॉमिक रिलीफ के तौर पर पेश किया जाता था। इसे पूरी लंबाई के नाटक में तब्दील करते हुए वामन केंद्रे ने दृश्यात्मकता के एक पारंपरिक मुहावरे में आबद्ध किया है. उनके पात्र मंच पर चटक रंग वाले कास्ट्यूम में नजर आते हैं।