भगवदज्जुकम

सातवीं शताब्दी के संस्कृत हास्य नाटक भगवद्ज्जुकम का प्रदर्शन पिछले दिनों मुक्तधारा प्रेक्षागृह में किया गया। वरिष्ठ रंगकर्मी हेमंत मिश्र निर्देशित इस प्रस्तुति में गणिका गोगल्स लगाए हुए दिखाई देती है। इस तरह प्राचीन परिवेश के हास्य को विशुद्ध प्रहसन में तब्दील किया गया है। शुरुआती दृश्य में परिव्राजक योगीराज और उनके शिष्य शांडिल्य में काफी देर तक आत्मा और शरीर को लेकर चर्चा चल रही है। योगीराज तो संसार से निस्संग हैं, पर शांडिल्य गुरुदेव के उपदेशों से आजिज आया हुआ एक दुखी चेला है। उसकी रुआंसी मुद्राओं और लोलुप मनोवृत्ति की अतिरंजना देखने लायक है। गुरु-चेला लताओं और तरह-तरह के रंग-बिरंगे पुष्पों से बनाए गए वन प्रांतर के दृश्य में उपदेश सुनते-सुनाते विचर रहे हैं। फिर एक जगह गुरुदेव ध्यानस्थ हो जाते हैं और शांडिल्य को इस रमणीक वन में एक रमणी अपनी सखियों सहित प्रवेश करती दिखाई देती है। गोगल्स लगाए रमणी को देखता लालसा-दग्ध चेला-- इस दृश्य योजना में गौण पात्रों के विवरण भी अच्छे मनोरंजक हैं। रमणी वसंतसेना की सखी और मां काफी प्रत्यक्ष किस्म का अभिनय कर रही हैं। उनके चौंकने, मनुहार करने, खीझने का लास्य एक नाटकीय तरकीब की तरह है। इसी दौरान एक यमदूत का दृश्य में प्रवेश होता है। इसके रंगढंग में भी अलग-अलग युगों की प्रवृत्तियों का घालमेल है। फुरसत के क्षणों में वह सिगरेट पीता दिखता है। किसी गलतफहमी में वह वसंतसेना के प्राण लेकर यमलोक चला गया है। अपनी सखी की यह दशा देख विस्फारित नेत्रों वाली परिभृतिका और टेढ़ी भौंहों वाली मां से एक दृश्य बनता है। यहां तक सब कुछ सही है। लेकिन प्रस्तुति यहां से थोड़ा गड़बड़ाना शुरू करती है, जब वैद्य का किरदार मंच पर अराजकता फैलाना शुरू करता है। पता नहीं क्यों निर्देशक ने कॉमेडी के नाम पर इस पात्र को किसी फिल्मी टपोरी की तरह खुला खेल फर्रुखाबादी करने की छूट दे दी है। मंच पर वैद्यराज हाथ में पकड़ी दारू की बोतल से गटागट घूंट भर रहा है। 
भगवदज्जुकम पर अलग-अलग निर्देशकों की कई प्रस्तुतियां अब तक देखी हैं। यह प्रस्तुति नाटक का एक संशोधित और परिवर्धित संस्करण कही जा सकती है। निर्देशक ने आधुनिक रंगमंच के तरीकों और लोकरंगमंच के भदेस को जोड़जाड़कर रोचक ढंग से प्रस्तुति तैयार की है। उन्होंने परिपाटी से अलग हटने की कोशिश की है। सातवीं शताब्दी के ही महेंद्र वर्मा कृत मत्तविलास के अलावा बोधायन का यह नाटक संस्कृत के सबसे प्रशंसित हास्य नाटकों में है, जिसका अंग्रेजी में भी रूपांतर हो चुका है।

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