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दिसंबर, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बचा रहने वाला काम

जीवन में कई तरह के लोग मिलते हैं. ज्यादातर अपनी निजी जरूरतों-हसरतों के प्रश्न से जूझते. लेकिन कुछ दिन पहले  दफ्तर में मिले सुमित की समस्या यह थी कि आज के इतने पतित हो गए सामाजिक हालात में जीवन कैसे जिया जाए. कि सारा माहौल इतना संवेदनहीन और विवेकशून्यता से भरा मालूम देता है कि आपका सारा जानना-समझना-पढ़ना-सोचना आपको कुंठा के अलावा कुछ और नहीं देता. मैंने ठीक-ठीक सुमित का दृष्टिकोण जानना चाहा तो उसने मुझे एक घटना सुनाई. एक दलित लड़की के साथ एक दबंग जाति के आठ लड़कों ने बलात्कार किया. मामला थाने पहुंचा, तो पुलिस ने लड़की की मेडिकल जांच कराई. जांच रिपोर्ट में कहा गया कि लड़की के साथ कोई बलात्कार नहीं हुआ है, लिहाजा एफआईआर दर्ज नहीं की गई. लेकिन इसके कुछ ही रोज में ऐसा हुआ कि लड़की से हुए कुकर्म की खुद बलात्कारियों द्वारा बनाई गई विडियो क्लिप सार्वजनिक हो गई. उसकी सीडी और एमएमएस जब बहुतों के पास पहुंच गए तो इस प्रत्यक्ष सबूत के दबाव में पुलिस को मामला दर्ज करने के लिए बाध्य होना पड़ा. पर न्याय की गुहार के इस प्राथमिक चरण तक पहुंचने तक लड़की इतना कुछ झेल चुकी थी कि उसने आत्महत्या कर ली. सु

सरोकार का रंगकर्म

बापी बोस निर्देशित प्रस्तुति  ‘ सैवंटीथ जुलाई ’   का प्रदर्शन पिछले दिनों श्रीराम सेंटर में किया गया। बापी बोस दिल्ली के उन गिने-चने रंगकर्मियों में हैं ,   जिनके काम में सामाजिक सरोकार , विचार और प्रतिबद्धता को बिल्कुल प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। पिछली प्रस्तुति में उन्होंने सुकरात की मार्फत सत्ता की निरंकुशता का एक रूपक पेश किया था। इस बार उन्होंने गुजरात के उत्तर-गोधरा परिदृश्य को पेश किया है। प्रस्तुति के शुरू में ही मंच पर सांप्रदायिक घृणा का अजगर लहराता हुआ दिखता है। प्रेक्षागृह के अंधेरे में चमकते हरे रंग के इस अजगर की डरावनी आकृति दर्शकों के बीच से गुजर रही है। फिर रोशनी होते ही मंच पर थाने का दृश्य दिखाई देता है ,   जहां कुछ पुलिसवाले बातचीत में मशगूल हैं। एक पुलिसवाले की सेकुलर राय उसके दो साथियों को पसंद नहीं आ रही। उनमें से एक की बीवी मुस्लिम दंगाइयों के हाथों मार डाली गई थी। इसी बीच कुछ लोगों की आवाजें सुनाई देती हैं। यह एक भीड़ है ,   जो कुछ मुस्लिम लड़कों की पिटाई पर उतारू है ,   कि उन्होंने एक हिंदू लड़की से दुष्कर्म किया है। पुलिसवाले भीड़ में से  लड़कों को छुड़ा लाए

परिसर में बिखरी रंगभाषा

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के चोंचलों का अंत नहीं। थिएटर के नाम पर वहां ऐसे-ऐसे प्रयोग हुआ करते हैं कि पश्चिम में आजमाए जाने वाले सर्रियल या प्रभाववादी मुहावरे भी पानी भरते नजर आएं। निदेशिका अनुराधा कपूर की हमेशा ही ‘ कुछ नया करने ’ और ‘ एक नई रंगभाषा तलाश करने ’ की कोशिशों ने इधर के अरसे में विद्यालय की प्रस्तुतियों को एक अजूबा बना डाला है। उनकी अपनी रंगभाषा का सिलसिला भी कुछ इस किस्म का है जो थिएटर की ‘ हैपनिंग ’ को ‘ इंस्टालेशन ’ ( संस्थापन) में तब्दील करता है। हालांकि कोई गहरा मनोयोग उनकी प्रस्तुतियों में कम ही दिखाई देता है। उसके बजाय ‘ अलग दिखने ’ का एक सायास उपक्रम नजर आता है। पिछले सप्ताह संपन्न हुई विद्यालय के अंतिम वर्ष के छात्रों के लिए निर्देशित उनकी नई प्रस्तुति ‘ डॉक्टर जैकिल एंड हाइड ’ भी इसी क्रम में देखी जा सकती है। आरएल स्टीवेंसन के सवा सौ साल पहले लिखे गए उपन्यास पर उनकी इस प्रस्तुति में दर्शकों के बैठने की कोई व्यवस्था नहीं है। इसके बजाय वे विद्यालय परिसर के अलग-अलग ठियों पर फैले प्रस्तुति के टुकड़ों को घूम-घूमकर देखा करते हैं। शुरू में बीच के लॉन में जमा हुए

पाकिस्तान की प्रस्तुति गुड़िया घर

दिल्ली इब्सन फेस्टिवल में पिछले सप्ताह  पाकिस्तान के थिएटर ग्रुप तहरीक-ए-निसवां ने  नाटक  ‘ गुड़िया घर ’  का मंचन किया। हेनरिक इब्सन के 1979 में लिखे प्रसिद्ध नाटक  ‘ ए डॉल्स हाउस ’  का यह एक रूपांतरित संस्करण थी। रूपांतरण में नाटक के सात पात्रों के बजाय कुल चार ही  मंच पर  दिखाई देते हैं। पत्नी का नाम यहां तहमीना है और पति का मुराद। मूल नाटक की कथावस्तु पूरे फैलाव में न दिखकर सरसरी तौर पर ही दिखाई देती है  :  पति की खुशी के लिए जी-जान से जुटी तहमीना, घर में किसी नारी निकेतन जैसी जगह से कुछ दिनों के लिए आई सकीना से उसकी बातचीत, इस बातचीत के जरिए स्पष्ट होता यथार्थ, जिसमें तहमीना की हर गतिविधि पति द्वारा नियंत्रित है, मानो वह एक गुड़िया हो जिससे वह जब चाहे जैसे चाहे, खेलता है। और अंत में तहमीना का घर छोड़कर जाने का निर्णय। नाटक के निर्देशक अनवर जाफरी के अनुसार पाकिस्तान के परिवेश में, जहां शादी को एक पवित्र और अटूट किस्म का संबंध माना जाता हो, नोरा या तहमीना के निर्णय की संगति ठहराना थोड़ा मुश्किल काम था, फिर भी उन्होंने इसे खेलने का निर्णय लिया। प्रस्तुति में एक प्रयोग यह किया गया ह

थोड़ा कथ्य ज्यादा शिल्प

निसार अल्लाना की ड्रामेटिक आर्ट एंड डिजाइन एकेडमी के दिल्ली में हुए इब्सन फेस्टिवल में पिछले रविवार को केरल के ग्रुप ‘ थिएटर रूट्स एंड विंग्स ’ ने नाटक ' व्हेन वी डेड अवेकन ' का मंचन किया। इब्सन ने यह नाटक 1899 में लिखा था। एक प्राकृतिक स्वास्थ्य केंद्र में छुट्टियां बिता रहे मूर्तिकार आर्नल्ड रूबेक और उसकी पत्नी माइया अपनी जिंदगियों में खिन्न हैं। आर्नल्ड ने कभी माइया से वादा किया था कि वह उसे पहाड़ की चोटी पर ले जाएगा , जहां से वह दुनिया को देख सकेगी , पर उसने यह कभी नहीं किया। ऐसे में उन्हें वहां दो लोग मिलते हैं। एक शख्स जो पहाड़ पर भालुओं के शिकार के लिए जा रहा है , और सफेद कपड़ों में एक रहस्यमय स्त्री। रूबेक पहचान जाता है कि यह स्त्री कभी उसकी मॉडल रही इरेना है। इरेना खुद को मरा हुआ बताती है। इसकी वजह है कि रूबेक ने उसकी आत्मा पर कब्जा करके उसे अपनी ' पुनरुत्थान ' शीर्षक मास्टरपीस मूर्ति में डाल दिया। रूबेक उसे बताता है कि उस मूर्ति के बाद से मृत होने की यह मनःस्थिति खुद उसकी भी है। इरेना के पास एक चाकू है। उसके अनुसार आत्माहीन होने के बाद से उसने इसी चाकू से अप

पूंछ हिलाने के पहलुओं पर नाटक

हनु यादव दिल्ली के पुराने रंगकर्मी हैं। वे बीच-बीच में दिखते हैं , फिर गायब हो जाते हैं। करीब दो-ढाई दशक पहले उन्होंने गजानन माधव मुक्तिबोध की लंबी कहानी ' विपात्र ' का श्रीराम सेंटर बेसमेंट में मंचन किया था। हिंदी अकादमी के सौजन्य से पिछले दिनों श्रीराम सेंटर में उनके निर्देशन में उनके पंचम ग्रुप की यह प्रस्तुति अरसे बाद फिर देखने को मिली। कहानीपन के निबाह के लिहाज से विपात्र एक गरिष्ठ किस्म का कथ्य है। इसके एक दफ्तर में काम करने वाले पात्र रोजमर्रा के वास्तविक सवालों पर बौद्धिक किस्म की चर्चा करते रहते हैं। इस चर्चा का सबसे बड़ा मुद्दा है कि ' हमने अपने स्वार्थों के लिए अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता बेच दी है ' । इसी बात को कहानी में कई तरह से कहा गया है। जितने भी पहलू इस विषय के हो सकते हैं उन्हें खंगाला गया है। उसका एक पात्र कहता है कि हर आदमी के पूंछ हिलाने के अलग-अलग तरीके होते हैं। फर्क इतना ही होता है कि कुछ लोग अपने आत्मसम्मान के प्रदर्शन के लिए अलग तरह से पूंछ हिलाते हैं। प्रस्तुति के संवाद कुछ इस तरह के हैं- ' कोई व्यक्तिबद्ध वेदना का उदात्तीकरण भले ही कर

भगवदज्जुकम

सातवीं शताब्दी के संस्कृत हास्य नाटक भगवद्ज्जुकम का प्रदर्शन पिछले दिनों मुक्तधारा प्रेक्षागृह में किया गया। वरिष्ठ रंगकर्मी हेमंत मिश्र निर्देशित इस प्रस्तुति में गणिका गोगल्स लगाए हुए दिखाई देती है। इस तरह प्राचीन परिवेश के हास्य को विशुद्ध प्रहसन में तब्दील किया गया है। शुरुआती दृश्य में परिव्राजक योगीराज और उनके शिष्य शांडिल्य में काफी देर तक आत्मा और शरीर को लेकर चर्चा चल रही है। योगीराज तो संसार से निस्संग हैं, पर शांडिल्य गुरुदेव के उपदेशों से आजिज आया हुआ एक दुखी चेला है। उसकी रुआंसी मुद्राओं और लोलुप मनोवृत्ति की अतिरंजना देखने लायक है। गुरु-चेला लताओं और तरह-तरह के रंग-बिरंगे पुष्पों से बनाए गए वन प्रांतर के दृश्य में उपदेश सुनते-सुनाते विचर रहे हैं। फिर एक जगह गुरुदेव ध्यानस्थ हो जाते हैं और शांडिल्य को इस रमणीक वन में एक रमणी अपनी सखियों सहित प्रवेश करती दिखाई देती है। गोगल्स लगाए रमणी को देखता लालसा-दग्ध चेला-- इस दृश्य योजना में गौण पात्रों के विवरण भी अच्छे मनोरंजक हैं। रमणी वसंतसेना की सखी और मां काफी प्रत्यक्ष किस्म का अभिनय कर रही हैं। उनके चौंकने, मनुहार करने, खीझन