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लड़की जो वायलिन हो गई

इंद्रियों से संचालित होने वाले शरीर को एक वस्तु की तरह बरतो तो वह एक दिलचस्प शै बन जाता है। आप खड़े-खड़े धड़ाम से गिर रहे हैं, पर चोट लगने का कोई भय नहीं। कोई कहीं भी छू रहा है कोई मायने नहीं। गुदगुदी होती है तो एक जैविक खिलखिलाहट निकलती है। अचानक एक शख्स बेतरतीब ढंग से कांपने लगता है। यानी शरीर अपनी फितरत में कुछ क्रियाएं करता है, पर वह इंद्रियबोझिल शख्सियत से बरी होकर एक स्वयंसक्षम इकाई बन चुका है। आध्यात्म की विदेह-अवस्था के जैसी ही मानो यह व्यक्तित्व-मुक्ति की कोई दशा है, जो एशियाइयों के वश की चीज नहीं। सामाजिक वर्जनाओं का बंधापन खुद को खुद से परे रखकर बरतने की मुक्ति तक जाने नहीं देता। यह तो पश्चिमी मानस है जो जान गया है कि शरीर को इतना तूल मत दो कि इस शरीर के भीतर रहने वाला मनुष्य उसका बंधक बन जाए।     कुछ रोज पहले दिल्ली आर्ट फेस्टिवल के तहत श्रीराम सेंटर में हुई हंगारियन प्रस्तुति 'एग शैल' शरीर की उन्मुक्त क्षमताओं का एक नायाब कोलाज थी, जिसके बारे में बताया गया कि वह 'वह हमारी दैनिक चर्याओं की प्राकृतिक भाषा में संबंध को बगैर शब्दों के परिभाषित करती है.' 

बेगानी गलियों में दौड़ते शहर का गीत

युवा रंगकर्मी लोकेश जैन ने रंगकर्म का एक अलग ही मुहावरा विकसित किया है। इस मुहावरे में कोई कहानी नहीं होती, पर बहुत से चरित्रों के माध्यम से एक परिस्थिति को दिखाया जाता है। लोकेश धीरे-धीरे इस परिस्थिति की एक लय बनाते हैं, जो कथाहीनता के बावजूद दर्शकों को बांधे रखती है। यह लय कुछ इस किस्म की है कि इसमें यथार्थ और रूमानियत एक साथ शरीक दिखाई देते हैं। उदाहरण के लिए मंच पर जीवन के तलछट का कोई दृश्य चल रहा है कि पीछे से किसी पुरानी फिल्मी मेलोडी के स्वर सुनाई देते हैं। अपनी नई प्रस्तुति 'हमें नाज है' में लोकेश ने इसी शैली में पुरानी दिल्ली के गरीब-गुरबा के जीवन को विषय बनाया है।  मंच पर बिल्कुल पीछे स्ट्रीट लाइट का एक खंबा खड़ा है, जिसपर एक गमला लटका है। वहीं नीचे प्रोपराइटर जमालू भाई का कंगला टी स्टाल है। टोपी लगाए व्यस्त जमालू के पास पड़ी बेंच पर छोटा जमालू भी बैठा रहता है। थोड़ी देर बाद केले वाली आती है, फिर गुदड़ी खाला, सुघड़ी आपा। किनारे पर दीन-हीन दशा में एक भिखारी भी बैठा है। उधार की चाय पीने वाला, झगड़ते हुए बच्चे, बोझा उठाने वाला आदि किरदार और मुनिया-पतरू की इश्किया लबझब

असभ्यता की सड़क पर

दिल्ली में एक सड़क, जिसे बीआरटी कॉरिडोर कहा जाता है, पिछले सालों में लगातार चर्चा और विवादों में रही है. कई साल पहले जब इसपर काम शुरू हुआ था तब मेरे जैसे बहुत से लोग उधर से गुजरते हुए देखते थे कि आखिर यह हो क्या रहा है. बीच की आधी सड़क को ट्रैफिक से खाली करवा कर उसे सीमेंटेड किया जा रहा था, उसपर छोटे-छोटे फुटपाथ और पटरियां वगैरह बनाए जा रहे थे. और इधर पूरी सड़क का ट्रैफिक आधी सड़क में इन कारगुजारियों को निहारता हुआ फंसा रहता. फिर पता चला कि सड़क को सीमेंटेड करने और फुटपाथ बनाने में करोड़ों रुपए खर्च हो चुके हैं, और इस तरह सरकार ने सार्वजनिक यातायात को व्यवस्थित करने की दिशा में एक नया झंडा गाड़ दिया है. उधर लगभग नियमित रूप से अखबारों और चैनलों में बीआरटी कॉरिडोर पर ट्रैफिक जाम की खबरें भी दिखाई देने लगीं. सरकार की उपलब्धि जनता को बेहाल किए हुए थी और लोग समझने लगे कि बीआरटी खुद में ही कोई राक्षसी नीति है. उसी दौरान एक स्वैच्छिक संस्था इंस्टीट्यूट फॉर डेमोक्रेसी एंड सस्टेनिबिलिटी के सौजन्य से हुए एक स्लाइड शो में  इसकी अवधारणा के तमाम पहलू जानने को मिले. उस शो में ऑस्ट्रिया से आए एक प