भूलने का रास्ता, बोलने का रास्ता


अरविंद गौड़ निर्देशित नई प्रस्तुति 'थर्टी डेज इन सेप्टेंबर' की कहानी 'चाइल्ड एब्यूज' के विषय पर केंद्रित है। इसके लेखक महेश दात्तानी हैं और अंग्रेजी से इसका हिंदी अनुवाद स्मिता नरूला ने किया है। बीते सप्ताह श्रीराम सेंटर में थिएटर ग्रुप अस्मिता ने इसका मंचन किया। अरविंद गौड़ की प्रस्तुतियों में अक्सर मंच पर काफी भीड़भाड़ होती है, जो इस प्रस्तुति में नहीं है। रंगमंच की अपनी खामोशी में अगर बात खुले तो ज्यादा कारगर होती है जैसा कि इस प्रस्तुति में है। मंच के दाहिने छोर पर स्पॉटलाइट में नाटक की मुख्य पात्र बेबाक-बेचैन माला दिखाई देती है। उसके मामा ने सात साल की उम्र में उसके साथ जो किया, उससे पुरुष नाम का तत्त्व उसके किरदार की एक ग्रंथि बन गया है। दो-तीन नपे-तुले दृश्य उसके इसी साइको किरदार का एक चित्र बनाते हैं। वह खुद से प्रेम करने वाले दीपक का घर में प्रवेश तक बर्दाश्त नहीं कर सकती, और ऐसा होने पर बुरी तरह बौखला जाती है। वह अपने एक परिचित को जानबूझकर उसकी प्रेमिका के सामने बेवफा साबित करवा देती है, वह एक शख्स पर झूठमूठ तोहमत लगा देती है कि वह उसकी ओर घूर रहा है। उसका यह जटिल किरदार बार-बार अपनी मां से जानना चाहता है कि जब 'वह सब' हो रहा था तो सबकुछ जानकर भी वह खामोश क्यों बनी रही। हर समय पूजा-पाठ में लगी रहने वाली मां उसके ऐसे सवालों को टालने की कोशिश करती है। वह चाहती है कि माला शादी कर ले। 
महेश दात्तानी उन जटिल परिस्थितियों की कहानी कहते हैं जिनमें ऐसी घटनाएं लंबे समय तक घटा करती हैं। वे अपने पात्रों के मनोविज्ञान को खोलने की और उन परिस्थितिगत कारणों तक पहुंचने की कोशिश करते हैं, जिनमें इस तरह के मामले आकार लेते हैं। उनके नाटक का कथानक इस अर्थ में कम नाटकीय और ज्यादा आधुनिक है। महेश दात्तानी यथार्थ में रस लेने की प्रचलित प्रवृत्ति की तुलना में उसकी तफ्तीश में ज्यादा रुचि दिखाते हैं, और इस नतीजे तक पहुंचते हैं कि चीजों के बारे में न बोलना अपने में एक बड़ी समस्या है। फिर भी उन्होंने इस सच को नाटक के अंत के लिए बचाकर रखा है, कि मां भी अपने बेटी की तरह उसी की उम्र में अपने उसी भाई की पशुता का शिकार हुई। इस मां के लिए जीवन जीने का सबसे बेहतर रास्ता है- उस कटुता को भुलाकर भगवान में खुद को लीन कर लेना। लेकिन बेटी एक दूसरे तरह की प्राणी है। उसे न सिर्फ अपने साथ घटी उन घटनाओं का गहरा हीनताबोध है, बल्कि उस दौरान अपने शरीर के लुत्फ पर गहरी शर्म भी। मां उससे कहती है-- लुत्फ को भूल जाओ, क्योंकि यही एकमात्र रास्ता है।  
मंच के बाएं छोर पर शिल्पी मारवाह प्रोटागोनिस्ट माला के बचपन के प्रतिरूप के तौर पर पैरों में सिर घुसाए उसकी व्यथा को ज्यादा प्रत्यक्ष बनाती हुई बैठी हैं। हालांकि बीच में जब-जब रोशनी का फोकस उसपर होता है तो उसकी अनवरत सिसकियां बात के तनाव में एक खलल ही ज्यादा पैदा करती हैं। एक आधुनिक आलेख विषय के दुख और करुणा में चक्कर काटने के बजाय उसके वैयक्तिक-सामाजिक पहलुओं की जटिलता में जाता है। अरविंद गौड़ ऐसी एक जटिलता का एक मौके पर अच्छा दृश्य खींचते हैं। मंच के एक छोर पर माला और उसका प्रेमी है, जहां अपनी मनोगत ग्रंथियों में उलझी माला के लिए प्रणय की हर चेष्टा असह्य हो रही है। इसी बीच मध्य स्टेज से आकर मामा बना पात्र उनके पीछे की जगह में 
आकर खड़ा हो गया है। वह एक पात्र नहीं माला के मन की एक मनोवैज्ञानिक कुंठा है। दृश्य में उसके प्रेमी द्वारा उसे छुए जाने पर उसकी तड़प और पीछे रोशनी में एक विद्रूप से होते जा रहे चेहरे वाले शख्स की मौजूदगी, रोशनी और संगीत के जरिए दृश्य एक मुकाम पर पहुंचता है।  
प्रस्तुति में स्टेज पर अतिरिक्त कुछ नहीं है। हालांकि घर के दृश्य में तीन काले स्टूलों की थोड़ी बहुत ड्राइंगरूमनुमा सजावट शायद उपयोगी होती। अभिनय का स्तर भी प्रस्तुति में ठीक था। माला की भूमिका में अमिता वालिया और मामा की भूमिका में बजरंग बली सिंह और मां की भूमिका में समीना शेख प्रभावशाली थे।

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