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आहिस्ता-आहिस्ता अप्रत्याशित

रतन थियम के नाटकों में थिएटर का एक क्लासिक व्याकरण देखने को मिलता है। इस व्याकरण में कहीं भी कुछ अतिरिक्त नहीं, कोई चूक नहीं। संगीत, ध्वनियां, रोशनियां, अभिनय- सब कुछ सटीक मात्रा में आहिस्ता-आहिस्ता लेकिन पूरी तल्लीनता से पेश होते हैं। रविवार को कमानी प्रेक्षागृह में हुई भारत रंग महोत्सव की उदघाटन प्रस्तुति 'किंग ऑफ द डार्क चेंबर' में भी सब कुछ इसी तरह था। पहले ही दृश्य में नीली स्पॉटलाइट अपना पूरा समय लेते हुए धीरे-धीरे गाढ़ी होती है। गाढ़े होते वृत्त में रानी सुदर्शना एक छितराए से विशाल गोलाकार आसन पर बैठी है। उसके पीछे और दाहिने दो ऊंचे झीनी बुनावट वाले फ्रेम खड़े हैं। एक फ्रेम के पीछे से पीले रंग की पट्टी आगे की ओर गिरती है। फिर एक अन्य पात्र सुरंगमा प्रकट होती है। बांसुरी का स्वर बादलों की गड़गड़ाहट। मणिपुरी नाटक का कोई संवाद दर्शकों के पल्ले नहीं पड़ रहा। लेकिन घटित हो रहा दृश्य उन्हें बांधे हुए है। मंच पर फैले स्याह कपड़े में से अप्रत्याशित एक आकार ऊपर को उठता है। कुम्हार की तरह रानी दोनों हाथों से इसे गढ़ रही है। फिर वह इस स्याह आदमकद को माला और झक्क सफेद पगड़ी पहनाती ह