कस्तूरबा गांधी का जीवन

मुंबई के आविष्कार और कलाश्रय ग्रुप की प्रस्तुति 'जगदंबा' यूं तो कस्तूरबा गांधी के जीवन पर केंद्रित है, लेकिन अंततः उसके केंद्र में महात्मा गांधी ही दिखाई देते हैं। प्रस्तुति में तीन पात्र हैं लेकिन उसकी शक्ल एकालाप की है। मुख्य एकालाप में कस्तूरबा महात्मा गांधी के साथ अपने जीवन को बयान करती हैं और उनके बयान की संवेदना को ज्यादा प्रामाणिक बनाते दो सहयोगी एकालाप उनके पुत्रों- मणि और हरि- के हैं। यह एक पारंपरिक भारतीय स्त्री के संस्कार और उसकी उम्मीदों के बरक्स उसके आत्मोत्सर्ग की कथा है। प्रस्तुति इस उत्सर्ग का महिमामंडन करने के बजाय इसे यथार्थ की जमीन पर देखती है और ऐसे में कस्तूरबा के मन पर लगने वाली चोटें, खुद के साथ उनका समझौता और हालात के आगे झुकना बार-बार दिखाई देता है। प्रस्तुति की कस्तूरबा पति की शुद्धतावादी जिदों के आगे लाचार दिखाई देती हैं। सिद्धांत के धरातल पर सोचते पति के आगे उनकी व्यावहारिक बुद्धि की एक नहीं चलती। वे युवा हो रहे पुत्र और पड़ोस की लड़की में दूरी रखने की हिमायती हैं, लेकिन गांधी दूरी के बजाय संयम के कायल हैं। पुत्र मणि के संयम न रख पाने की सजा वे उपवास रखकर खुद को देते हैं। और पुत्र और पति दोनों को हुए कष्ट को कस्तूरबा झेलती हैं। अछूतों के लिए निषिद्ध जगन्नाथ पुरी के दर्शन पर उन्हें पति से लताड़ मिलती है। गांधी के लिए आश्रम के बच्चे ही अपने बच्चे हैं, लेकिन कस्तूरबा लाख चाहकर भी अपने बेटों के भविष्य की 'अतिरिक्त' चिंता से खुद को रोक नहीं पातीं। पति के कहने पर वे घर आए लोगों का पाखाना साफ करने को तैयार होती हैं लेकिन ईसाई हो चुके दलित की गंदगी साफ करना उनके संस्कार गवारा नहीं करते, पर पति के रौद्र रूप को देखकर उन्हें यह करना पड़ता है। पति के आंदोलन के लिए सारे गहने दे देने वाली बा उपहार में मिले एक महंगे हार को बहुओं के लिए सुरक्षित रखना चाहती हैं, लेकिन गांधी उसे बेचकर रकम को ट्रस्ट के काम में लगाना चाहते हैं। इतना ही नहीं, पति की ब्रह्मचर्य व्रत के दौरान होने वाली 'गलतियों' को सार्वजनिक करने की बात को भी कस्तूरबा समझ नहीं पातीं। किंचित उदासी में वे कहती हैं- 'मैंने न कभी हां कहा न ना। पर इन बातों को सार्वजनिक क्यों कहना!'
प्रस्तुति के दो अन्य बयान इस पहले बयान की तर्कभावना को कुछ और गाढ़ा करते हैं। कस्तूरबा को मलाल है कि हरिलाल अपने शुरुआती दिनों में गांधी के रास्ते पर चलकर कितनी बार जेल गया, पर जेल जाने से हर कोई गांधी नहीं बन जाता। वे कहती हैं- 'इन्हें' विलायत जाकर पढ़ने-लिखने-जानने का मौका मिला, तो ऐसा मौका हरिलाल को क्यों न मिले! प्रस्तुति में शराब की लत के शिकार, पत्नी-बच्चों के प्रति लापरवाह और धर्म परिवर्तन कर मुसलमान और फिर हिंदू बन जाने वाले हरिलाल के मन में मां को दिए दुख को लेकर गहरी कचोट है। लेकिन वहीं पिता के प्रति उनके शिकायती लहजे में एक असमंजस दिखाई देता है। इससे पहले ऐसी कुछ शिकायतें मणि के एकालाप में भी झलकती हैं। प्रस्तुति के अंत में कस्तूरबा उस मोहन को याद करती हैं जो अंधेरे से डरता था, और तब उनके डर को भगाने के लिए वे 'राम राम' का जाप करती थीं। अगले जन्म में वे पति के रूप में विराट छवि और सैद्धांतिक आग्रहों वाले महात्मा गांधी की तुलना में उसी मोहन को चाहती हैं।
मंच के बीचोबीच छोटा सा प्लेटफॉर्म है जिसपर चरखा, दीवार, कुर्सी आदि हैं। एक ही मंच सज्जा में करीब सवा दो घंटे लंबी प्रस्तुति में बगैर किन्हीं नाटकीय भाव भंगिमाओं और युक्तियों के यह कथ्य ही है जो दर्शक को बांधे रखता है। फिर भी पूरे प्रस्तुति डिजाइन में एक ऐसी सादगी है जो कथ्य के अनुरूप है। कस्तूरबा की भूमिका में रोहिणी हट्टंगड़ी मंच पर थीं। उनका अभिनय कस्तूरबा की छवि बनाता है जो प्रत्यक्षतः शांत है, पर जिसके अपने दुख और अनुराग हैं। अन्य दोनों एक-दूसरे से बिल्कुल विपरीत किरदारों में असीम हड्डंगड़ी भी गहरा प्रभाव छोड़ते हैं।

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