शरीर में अभिनय की पहचान

रंग-अभिनय के क्षेत्र में शरीर का कई तरह से संधान किया गया है। भारंगम में प्रदर्शित अर्जेंटीना की दो युवा अभिनेत्रियों- मरीना क्वेसादा और नतालिया लोपेज- की 'मुआरे' नामक प्रस्तुति इसका एक उदाहरण है। यह प्रस्तुति एक उपन्यास से प्रेरित है जिसमें लेखिका ने गहरे मृत्युबोध में हर स्मृति और वस्तु को मानो बड़े आकार में और बहुत पास जाकर देखा है। यथार्थ को देखने के इस ढंग ने इन अभिनेत्रियों को मंच पर एक 'गति आधारित भाषा' रचने का विचार दिया। दरार पड़े शरीर और उसमें स्वायत्त हो चुके अंगों की भाषा। अपने एकांगीपन में हर अंग क्या कर सकता है- इसकी देहाभिव्यक्ति। मंच में बने एक दरवाजे में शीशा लगा है, जिसमें सबसे पहले उंगलियां, फिर हथेली, पूरा हाथ और फिर एक लहराती हुई काया दिखती है। थोड़े से खुले दरवाजे से एक-एक अंग करके बहुत कोशिशों के साथ यह दुबली-पतली काया भीतर आती है। एक जर्जर, कांपती हुई-सी स्त्री-देह। बहुत कोशिश करके खड़ी होती और चलती, गिरती-पड़ती, वहीं पड़ी मेज पर खुद को मरोड़ती-तोड़ती और फर्श पर आड़े-तिरछे, किसी निर्जीव की तरह ऊटपटांग ढंग से फैल जाती। थोड़ी देर में वैसी ही एक दूसरी देह वहीं पड़े सोफे पर फैले बहुत से कपड़ों में से प्रकट होती है। मेज के पास कांपती हुई मुंह में पानी भरकर इस देह पर उगल देती है और फिर उसे अपने कंधे पर लाद लेती है। फिर दोनों एक प्लास्टिक की पन्नी में उलझ जाती हैं। तेज संगीत पर गिरती-पड़ती नाचती हैं। अर्थहीन ढंग के कुछ संवाद बुदबुदाती हैं।

'मुआरे' से अलग लेकिन अपनी प्रकृति में वैसी ही प्रभाववादी निर्देशक मडोका ओकाडा की जापानी प्रस्तुति 'उगेत्सु मोनोगतारी' भी थी। फर्क यह है कि इसमें एक कहानी और उसके निहितार्थों को प्रभावात्मक तरह से पेश किया गया है। एक आदमी के मादा सांप के प्रति आकर्षण की इस कहानी में प्रत्यक्षतः मंच पर एक शैली ही ज्यादा नजर आती है। इस शैली में 'जापानी प्रदर्शन कला के परंपरागत शारीरिक अभिनय के आयामों को जोड़ा गया है'। कमानी प्रेक्षागृह के मंच की पूरी गहराई और चौड़ाई में लगातार कई रंगों की प्रकाश योजना है। शुरू के दृश्यों में पात्र इसमें लगभग सुनिश्चित ग्राफिकल ढंग से खड़े हैं। स्वरों और मुखौटों का प्रयोग भी किया गया है।

इन विदेशी प्रस्तुतियों के बीच तमिल प्रस्तुति 'अट्टरामाई' अपनी सादगी में बिल्कुल अलग आस्वाद देती है। अट्टरामाई का अर्थ है ईर्ष्या। वरिष्ठ रंग निर्देशक एन. मुत्थुस्वामी निर्देशित इस प्रस्तुति में बारी-बारी से चार कहानियां बिल्कुल सीधे-सादे ढंग से पेश की गई हैं। शीर्षक कहानी में एक स्त्री का सैनिक पति नौकरी की वजह से दो साल से उससे दूर है। अपनी हमउम्र पड़ोसन को पति के साथ खुश देखकर उसमें तरह-तरह की भावनाएं उमड़ती रहती हैं। प्रस्तुति में मंचीय तामझाम नगण्य है। कहानी के विवरण ही उसका मंचीय यथार्थ है। फूलवाला आता है, झाड़ूवाला आता है लेकिन उदास सावित्री के लिए ये सब बेमतलब है। वह दरवाजे से देखती है पड़ोसन के घर में कोई आया और पति के दरवाजा खोलने पर वो अस्तव्यस्त लेटी थी। पति की लापरवाही से पड़ोसन खुद शर्मिंदा है पर सावित्री इसे उसकी बेशर्मी समझती है। एक कहानी कथासरित्सागर से ली गई है। एक गरीब आदमी अपनी बेबसी से थका हुआ गेरुआवस्त्रधारी चमत्कारी बन जाता है और राजा तक को उसका कायल होना पड़ता है। यथार्थपूर्ण चरित्रांकन और नैरेटिव की सादगी ही प्रस्तुति की विशेषता है। इसके निर्देशक एन. मुथुस्वामी तमिल में आधुनिक रंगमंच की नींव डालने वालों में शुमार किए जाते हैं।

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