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बारह बजे सुन सइयां की बोली

दिल्ली के तालकटोरा गार्डन में हिंदी अकादमी की ओर से कानपुर शैली की नौटंकी 'सुल्ताना डाकू' का मंचन किया गया। नौटंकी जुमलेबाजी में रस लेने वाले भारतीय मानस की कला है। पाकिस्तान में 'बकरा किस्तों पर' जैसे रूप भी इसी मानस की चीज हैं। यह मूलतः एक वाचिक नाट्य है जिसमें असली कलाकार माइक है। कानपुर की प्रसिद्ध दि ग्रेट गुलाबबाई थिएट्रिकल कंपनी की इस प्रस्तुति में मंच पर चार-पांच माइक खड़े कर दिए गए हैं, जिन्हें ऐ मालिक तेरे बंदे हम की वंदना के बाद पात्रों ने संभाल लिया है। पहले ही दृश्य में तमाम डाकू शराब पी रहे हैं। वे संवाद बोलने से पहले माइक टेस्टिंग की हलो बोलते हैं। एक मशहूर धार्मिक धुन की तर्ज पर 'फटाफट जाम पिला दे' बज रहा है और ज़ाहिद के बजाय साकी से मस्जिद में बैठकर पीने देने की मिन्नत की जा रही है कि सुल्ताना आकर उनपर कोड़े बरसाना शुरू कर देता है। उसे खुंदक है कि साहब बहादुर उसे लंदन से पकड़ने आ रहे हैं, लखनऊ पार्लियामेंट में हंगामा मचा हुआ है, और 'आप यहां शराब पी रहे हैं'। आगे के दृश्यों में साहब बहादुर मिस्टर यंग पुलिस वाले से बोलता है- तुम बड़ा कुत

चीन की अभागी खलनायिका

बीते साल भारत रंग महोत्सव में चीन की प्रस्तुति 'अमोरॉस लोटस पैन' का प्रदर्शन किया गया था। यह प्रस्तुति इस बात का अच्छा उदाहरण है कि कैसे शैलीगत प्रयोगों के साथ विषय के तनाव और प्रवाह को बरकरार रखा जा सकता है। प्रस्तुति की केंद्रीय किरदार पैन जिनलियान चीन के एक प्रसिद्ध क्लासिक उपन्यास की पात्र है। सामान्यतः उसकी एक खल-सुंदरी की छवि है, जो अपने पति को धोखा देती है। लेकिन निर्देशक चेन गांग उसकी त्रासदी को उसके व्यक्तित्व और भाग्य के टकराव के अनिवार्य परिणाम के तौर पर देखते हैं। उसकी त्रासदी से जुड़े कई सवाल हैं जिन्हें अंत में यह प्रस्तुति दर्शकों के आगे छोड़ जाती है। मंच पर पीछे की ओर दरवाजे के आकार के फ्रेमों की एक दीवार है। प्रस्तुति के शुरू में एक फ्रेम में से एक पात्र निकलकर आता है और बताता है कि वो एक महान प्रतिभा वाला एक प्रसिद्ध लेखक है। इसी बीच उसके आसपास बहुत से लोग जमा हो जाते हैं और उससे उसके किरदार पैन जिनलियान और उसकी नियति को लेकर सवाल पूछते हैं। इसके कुछ देर बाद पैन जिनलियान खुद मंच पर दिखाई देती है जो छोटी उम्र में अनाथ हो गई थी और उसे झंग दाहू नाम के एक धनी व्यक

मुस्कुराता हुआ विद्रूप

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के अंतिम वर्ष के छात्रों की प्रस्तुति 'ड्राइव' एक लाइव थिएटर एग्जीबिशन की तरह है। सजीव छवियों की प्रदर्शनी। इसके लिए अभिमंच प्रेक्षागृह के मंच के आयताकार स्पेस में कई केबिन तैयार किए गए हैं। दर्शक इनके सामने से गुजरते हैं। रुककर अभिनीत की जा रही छवि को देखते हैं और फिर अगले केबिन की ओर बढ़ जाते हैं। प्रस्तुति के निर्देशक स्विटजरलैंड के डेनिस मैल्लेफर ने छात्र-छात्राओं के लिए दो विषय चुने-- ऑटो रिक्शा ड्राइवर और वुमेन ट्रैफिक कांस्टेबल। उन्हें वास्तविक जीवन में जाकर इन पात्रों के संपर्क में आना था। उनके निजी और पेशागत पहलुओं को जानना था और इस तरह उनकी शख्सियत की थाह लेनी थी। निर्देशक ने उनसे कहा कि इस प्रक्रिया में अर्जित की गई छवि को वे हूबहू चित्रित न करें, बल्कि जिंदगी के एक रवैये के तौर पर, एक विवरण की तरह उपयोग करें। फिर इस कच्चे माल से वे एक नए लेकिन विशिष्ट चरित्र की सर्जना करें। 'ऐसा चरित्र जिसका कोई लक्ष्य, कोई इच्छा, कोई राज, कोई कमजोरी हो, कुछ ऐसा कि उसे मंच पर साकार किया जा सके'। प्रस्तुति देखते हुए ऐसा लगता है कि अपने मंतव्य को आ

प्रयोग और प्रगतिशीलता

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्रों की डिप्लोमा प्रस्तुतियों में प्रयोगशीलता अक्सर सौंदर्य प्रसाधनों की तरह होती है, जिससे प्रस्तुति को सजाया-संवारा जाता है। बीते दिनों विद्यालय परिसर में हुई कर्नाटक की सहाना पी निर्देशित प्रस्तुति 'जन्नत महल' इस लिहाज से दिलचस्प थी। इसका मंचन तीन ओर कॉरिडोर से घिरे एक चौकोर लॉन में किया गया। कॉरिडोर में बैठे दर्शकों और मंच के बीच एक पारदर्शी पन्नी या मोमजामा था, जो आधी प्रस्तुति के बाद हटा दिया गया। मोमजामे के दूसरी ओर नाटक की नायिका जुलेखा की दुनिया का जिक्र कुछ यूं था कि पहले ही दृश्य में वह मंच के एक छोर पर खड़े पेड़ से कूदती है। उसका पति मरा पड़ा है, पर वह प्रफुल्लित स्वर में गमगीन लोगों से जामुन और बादाम खाने के बारे में पूछती है। लोग कहते हैं 'कैसे चहक रही है, क्या इसे जहन्नुम का भी खौफ नहीं' या यह कि 'शायद शौहर की मौत के सदमे में यह ऐसी हो गई है'। मंच के बीचोबीच कफन से ढका मरा पड़ा पति बीच-बीच में उठकर जुलेखा को सिर ढकने वगैरह की हिदायतें देता है, और फिर मंच के एक सिरे पर कतार से खड़े अलग-अलग ऊंचाई के छह-सात रेफ्रिजरेटर

मौन में व्यंजना

युवा रंगकर्मी लोकेश जैन ने पिछले वर्षों के दौरान एक खास तरह के थिएटर में प्रवीणता हासिल की है। वे मंच पर सीमित संसाधनों से एक ऐसी रंगभाषा रचते हैं जो अपने लालित्य, सादगी और लय में प्रभावित करती है। वे मंच पर एक ऐसा काव्यात्मक मुहावरा रचने की कोशिश करते हैं, जिसमें छंद और अमूर्तन एक साथ शामिल है। खास बात यह है कि यह काम वे स्कूल में पढ़ने वाले किशोर उम्र के कलाकारों के साथ करते हैं। सोमवार को नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी सभागार में उन्होंने प्रस्तुति 'ख्वाबों के बुलबुले' का मंचन किया। प्रस्तुति में कोई संवाद नहीं है पर स्थितियों और घटनाओं की सांकेतिकता में एक कथ्य उसमें दिखाई देता है। लगभग सपाट पीली रोशनी में आकार लेती प्रस्तुति में मंच पर कई पात्र पुतुल शैली में उपस्थित हैं। मंजीरे और बांसुरी के स्वरों पर उनकी देहगतियां एक दृश्य रचती हैं। कभी चिड़ियों की चहचहाहट, कभी घड़े में सिक्कों के उछाले जाने का स्वर, फिर ड्रम के रौद्र स्वर, फिर अचानक शांत आलाप...। स्टेज पर आगे की ओर सफेद रंग में लीपा हुआ एक घड़ा रखा है। एक पात्र वैसे ही रंग के लोटे से सूर्य को अर्घ्य चढ़ाने की मुद्रा में है,

उकताहट और तीन औरतें

चित्र
सौरभ शुक्ला निर्देशत 'रेड हॉट' प्रसिद्ध अमेरिकी नाटककार नील साइमन का नाटक है। हिंदी में स्वयं सौरभ ने इसका रूपांतरण किया है। इसके केंद्र में एक ऐसा किरदार है जिसकी शादी को 22 साल हो चुके हैं और इस उम्र में उसे लगने लगा है कि जिंदगी बडी बोरियत भरी है, कि कहीं उसकी कोई पूछ नहीं है, कि वह व्यर्थ में ही समय बिताए जा रहा है, वगैरह वगैरह। ऐसे में अपनी जिंदगी में थोड़ी उत्तेजना लाने के लिए उसके दिमाग में विवाहेतर संबंध का आइडिया आता है। यह नाटक इसी सिलसिले में तीन अलग अलग किस्म की स्त्रियों से उसकी मुलाकात याकि मुठभेड़ की कहानी है। अपनी समूची मंचीय संरचना में प्रस्तुति लगातार काफी चुस्त है। उसकी मंच सज्जा में कहीं कोई झोल नहीं, कोई विंग्स नहीं। काफी बारीकी से फ्लैट के अंदर का दृश्य बनाया गया है, जिसमें ड्राइंगरूम से जुड़ा एक टेरेस है, जहां से झांककर नीचे गार्ड को आवाज दी जा सकती है। ड्राइंगरूम में एसी लगा है। कारपेट है। रसोई में सर्विस विंडो है, जहां से भीतर और बाहर खड़े दोनों पात्रों की बातचीत और कार्रवाइयां दर्शकों को दिखाई देती हैं। रसोई के भीतर रखे फ्रिज का थोड़ा सा हिस्सा भी दिखा

नाटक एक उत्पाद है

रंग निर्देशक सुरेंद्र शर्मा ने उसी तरह हिंदी के कई क्लासिक उपन्यासों- 'बूंद और समुद्र', 'रंगभूमि', 'मैला आंचल', 'बाणभट्ट की आत्मकथा' आदि- को रंगमंच पर पेश किया है, जिस तरह देवेंद्र राज अंकुर ने अपने 'कहानी का रंगमंच' में कहानियों को। लेकिन अंकुर की तरह उन्होंने कभी किसी शैली में बंधने की कोशिश नहीं की। इसके बजाय वे उपन्यास की संवेदना और उसकी छवियों के रूपाकार पर अधिक केंद्रित रहे हैं। इधर उन्हें क्या सूझी कि उन्होंने विष्णु प्रभाकर जन्म शताब्दी के मौके पर उनकी तीन कहानियों का लगभग अंकुर शैली में मंचन किया। बीते सप्ताह भाई वीर सिंह मार्ग स्थित मुक्तधारा प्रेक्षागृह में हुई रंगसप्तक की इस प्रस्तुति में विष्णु प्रभाकर की तीन कहानियों- 'कितने जेबकतरे', 'डायन' और 'धरती अब भी घूम रही है'- में कहानियों का नाट्य रूपांतरण नहीं किया गया है। उन्हें मंच पर सुनाया जा रहा है और इस सुनाए जाने के बीच वे मानो उदाहरण के लिए घटित भी होती हैं। घटित होने का यह ढंग निहायत अनौपचारिक है। जैसे वाचन में कहानी पूरी स्पष्ट न हो रही हो, इसलिए अभिनय के

यह नाटक नहीं, श्रद्धांजलि है

एमएस सथ्यू से बातचीत - थिएटर मे एक बार फिर आप वापस आए हैं। कैसा लग रहा है? - नहीं, मैं नाटक करता रहा हूं। अभी टैगोर का 'ताशेर देश' हमने कन्नड़ में बंगलौर में किया। इससे पहले कन्नड़ के ही बी सुरेश के मूल आलेख पर 'गिरजा के सपने' किया था। कुछ न कुछ चलता ही रहता है। - थिएटर और सिनेमा में काम करने में क्या फर्क है? - अभिनय एक ऐसी चीज है जो हम किसी को सिखा नहीं सकते। फिर भी यह फर्क है कि थिएटर में हम अभिनेता को सिर्फ बता सकते हैं, लेकिन जब वो स्टेज पर होता है तो उसे सब कुछ खुद ही करना होता है, उस क्षण में उसे कुछ बताया नहीं जा सकता। जबकि सिनेमा में सब कुछ आपके नियंत्रण में होता है। जो ठीक नहीं लगा उसे एडिट किया जा सकता है, दोबारा शूट किया जा सकता है। - आपकी इस प्रस्तुति के पात्रों के चेहरे-मोहरे और कद-काठी वास्तविक किरदारों से काफी मिलते-जुलते हैं। क्या इसके लिए आपको काफी मेहनत करनी पड़ी? - नहीं, अभी मात्र तीन हफ्ते से ही इनसे परिचय है। ये सब पहले से ही थिएटर में एक्टिंग करते रहे हैं। वैसे चेहरे के मिलान से कोई बड़ा फर्क नहीं पड़ता है। फिल्म गांधी के बेन किंग्स्ले कहां गांधी

प्रेम की एक आधुनिक दंतकथा

एमएस सथ्यू अपनी नई नाट्य प्रस्तुति 'अमृता' के साथ एक बार फिर हाजिर हैं। अमृता की कहानी आधुनिक समय के एक प्रसिद्ध प्रेम त्रिकोण की कथा है। इस त्रिकोण की विशेषता यह है कि उसमें कोई बाहरी द्वंद्व नहीं है। उसके तीनों पात्रों- अमृता प्रीतम, इमरोज और साहिर लुधियानवी- में अपने वजूद की पहचान का एक आंतरिक द्वंद्व है, और यही द्वंद्व प्रस्तुति की थीम है। प्रस्तुति की नायिका अमृता हैं, पर उसके नायक उम्र में उनसे 10-12 साल छोटे इमरोज हैं, न कि साहिर। यह दरअसल अमृता और इमरोज की प्रेमकथा है जिसमें साहिर एक अहम संदर्भ की तरह मौजूद हैं। नाटक की एक अन्य विशेषता है कि उसके आलेखकार दानिश इकबाल खुद को उसका लेखक मानने को तैयार नहीं हैं। उनके मुताबिक मंच पर बोला जा रहा एक-एक शब्द अमृता प्रीतम का लिखा है, और उनकी भूमिका सिर्फ विषय के तरतीबकार या संयोजक की है। एमएस सथ्यू की मशहूर फिल्म गरम हवा 1973 में रिलीज हुई थी। उसके मुख्य किरदार सलीम मिर्जा का असमंजस है कि वो पाकिस्तान जाए या नहीं। नया मुल्क बनने के बाद उसकी आर्थिक परेशानियां बढ़ती जा रही हैं। सथ्यू का कहना था कि इस फिल्म के पीछे उनका मकसद उस खेल

मृत्यु के रूमान का नाटक

चेतन दातार हिंदी और मराठी के प्रखर रंगकर्मी थे। सन 2008 में मात्र 44 साल की उम्र में उनका आकस्मिक निधन हो गया। निधन से पूर्व 'राम नाम सत्य है' शीर्षक यह प्रस्तुति उन्होंने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल के लिए निर्देशित की थी। प्रस्तुति के सभी प्रमुख पात्र किसी अस्पताल या आश्रमनुमा जगह में रह रहे एचआईवी एड्स से ग्रसित मरीज हैं। आसन्न मृत्यु की प्रतीक्षा में वे बचे-खुचे जीवन के लिए खुशियों के जुगाड़ ढूंढ़ रहे हैं। दो पात्र दिल को बहलाने वाली नितांत हवाई किस्म की बातें किया करते हैं। मैंने वह फार्म हाउस खरीद लिया, सीधी फ्लाइट से उतरते हैं, वगैरह। आश्रम का सबसे 'जीवंत' पात्र गोपीनाथ अपनी जीवनगाथा सुनाता रहता है, जिसमें वो बहुत ऊंचे इरादे रखने वाला अतिआत्मविश्वास से परिपूर्ण एक नौजवान हुआ करता था। अपने आत्मविश्वास में उसने एक उद्योगपति की बेटी से प्रणय निवेदन किया, घर-बार छोड़कर सड़कछाप मवाली की सी जिंदगी चुनी, और आखिरकार एक हसीना के धोखे में एड्स का तोहफा मिला। मरीजों की जिंदगी का यथार्थ और गोपीनाथ की बीती जिंदगी की हास्यपूर्ण स्थितियां प्रस्तुति को ब्लैक कॉमेडी का दर्जा

सख्त रंगों का स्थापत्य

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल की मौजूदा प्रस्तुतियों में लिटिल बिग ट्रैजेडीज का डिजाइन बिल्कुल अलग तरह का है। इसके लेखक और निर्देशक दोनों रूस के हैं। अलेक्सांद्र पुश्किन के 180 साल पुराने इस आलेख में कुल तीन कहानियां हैं। तीनों कहानियां मंच पर बने एक विशाल आकार में घटित होती हैं। तंबू या चोगेनुमा इस आकार के शीर्ष पर एक जालीदार मुखाकृति है, जिसपर अलग-अलग मौकों पर कुछ खास कोणों से पड़ती रोशनियां एक विचित्र रहस्यात्मक प्रभाव पैदा करती हैं। हवा में लटके हाथों सहित यह दानवाकार अपने में ही एक दृश्य है। हर कहानी में एक निश्चित रंग के लपेटे या ओढ़े हुए प्रायः एक वस्त्रीय कास्ट्यूम में पात्रगण इस जड़वत दृश्य में गति पैदा करते हैं। धोखे, कपट और हिंसा की स्थितियों में मंच पर फैला लाल, नीला, या सलेटी प्रकाश उसे एक संपूर्ण रंग-दृश्य बनाते हैं। पौने दो घंटे की प्रस्तुति में यह दृश्य किंचित एकरस भी हो सकता है। निर्देशक ओब्ल्याकुली खोद्जाकुली इस एकरसता को तोड़ने की कई युक्तियां अपने विन्यास में शामिल करते हैं। एक मौके पर एक कमंडल से अनवरत धुआं निकलता दिखता है। एक अन्य दृश्य में आकार के सिरे से लट

कोर्ट मार्शल और सबसे बड़ा सवाल

कोर्ट मार्शल पिछले दो दशकों में हिंदी थिएटर में सबसे ज्यादा खेला गया नाटक है। वह यों तो स्वदेश दीपक की रचना है, पर उसका रंगमंचीय संस्कार रंजीत कपूर ने किया था। उनके निर्देशन में पीयूष मिश्रा और गजराज राव जैसे अभिनेताओं के साथ वह पहली बार 1991 में खेला गया था। तब से विभिन्न थिएटर ग्रुप लगातार उसे खेल रहे हैं। इधर रंजीत कपूर ने इसकी एक नई प्रस्तुति तैयार की है। लखनऊ की भारतेंदु नाट्य अकादेमी के छात्रों के लिए निर्देशित इस प्रस्तुति का श्रीराम सेंटर में मंचन किया गया। 'कोर्ट मार्शल' की विशेषता है कि वह दर्शक को मोहलत नहीं देता। वह हमारी दलिद्दर सामाजिकता का एक युक्तिपूर्ण और डि-रोमांटिसाइज्ड पाठ है। उसकी यह विशेषता है कि दलित विमर्श की अत्युक्तियों के बगैर वह ऐसी सही जगह चोट करता है कि बिलबिलाते वर्णवाद को खुद ही अपना चोगा फेंककर नंगा हो जाना पड़ता है। यह नाटक कला में विचार की तार्किक एप्रोच का भी एक अच्छा उदाहरण है। सच को छुपाना एक बात है, उसके प्रति उदासीन रहना दूसरी। रामचंदर का वकील विकाश राय जब पर्त दर पर्त इस उदासीनता को उघाड़ता है, तो वहां एक बड़ा भारी अन्याय छिपा नजर आता है

अभिनय में एक दृश्य था

रवींद्रनाथ टैगोर की कहानी 'क्षुधित पाषाण' याकि भूखे पत्थर की प्रस्तुति बुधवार को संगीत नाटक अकादेमी के मेघदूत प्रेक्षागृह में की गई। आलोक चटर्जी के एकल अभिनय वाली इस प्रस्तुति का आयोजन अकादेमी की कार्यक्रम श्रृंखला रवींद्र प्रणति के अंतर्गत किया गया। क्षुधित पाषाण में कहानी के भीतर एक कहानी है। कहानी सुना रहा नायक रूई का महसूल वसूलने वाला एक इंस्पेक्टर है। उसे बरीच नाम की एक सुरम्य जगह पर तैनाती मिली है। यह कहानी यहीं के एक जनशून्य प्रासाद की है, जहां उसे रहना है। प्रासाद के कर्मचारी दिन में तो उसकी सेवा को तत्पर हैं लेकिन शाम के बाद वे वहां नहीं रुकना चाहते। अकेले नायक को यहां कुछ ऐसा अदभुत देखने को मिलता है कि 'दिन की शाला पर एक दीर्घ कृष्ण यवनिका' के घिरते ही वह इसमें घिरने लगता है। रुकने के पहले रोज ही उसे कुछ रमणियां नजदीक से गुजरती दिखती हैं और फिर पानी में छपाक-छपाक के स्वर। और दिखती है अभिसार की प्रतीक्षा में एक अरब देश की तरुणी। नायक को लगा मानो यह अवास्तविक व्यापार ही जगत का एक मात्र सत्य हो। कि यथार्थ में साढ़े चार सौ रुपए पाने वाला रूई का महसूल इंस्पेक्टर

कलावाद की कवायद

हिंदी थिएटर में हर कोई प्रभावात्मक किस्म के प्रयोग करने पर उतारू है। युवा रंगकर्मी राजकुमार रजक निर्देशित इलाहाबाद के थिएटर ग्रुप एक्स-ट्रा की प्रस्तुति 'सूरज का सातवां घोड़ा' कुछ इस तरह की है कि उसमें इस उपन्यास की जगह कोई भी कविता, कहानी, उपन्यास, आख्यान फिट किया जा सकता है। प्रस्तुति नैरेटिव का कोई प्रकार पेश नहीं करती, क्योंकि नैरेटिव का यहां कोई मूल्य ही नहीं है। वह एक दृश्यात्मक कलावाद में नौकर की तरह मौजूद है। एक जैसी पोशाक में छह अभिनेता मंच पर किसी शास्त्रीय ऑपेरा जैसे दृश्य निर्मित करते हैं। ये देहगतियों की लय से बनने वाले दृश्य हैं। इनमें कास्ट्यूम और प्रकाश योजना के रंग हैं। बुल्ले शाह के बोलों की सूफियाना रंगत से लेकर केसरिया बालमा आवो मोरे देस तक के आलाप हैं। दो लाठियों को पालकी में बदल देने जैसी दृश्य युक्तियां हैं। तरह-तरह की बुदबुदाहटें हैं। लेकिन कुछ नहीं है तो पाठ का संप्रेषण। प्रस्तुति के डिजाइन में संप्रेषण किसी प्रयोजन की तरह नजर ही नहीं आता। पूरी प्रस्तुति एक वायवीयता की शिकार मालूम देती है। उसके प्रभावात्मक प्रयोग में उपन्यास का एक सहयोगी इस्तेमाल भर हो

हाथरस शैली का रस

भोपाल के रवींद्र भवन में बीते सप्ताह नौटंकी-उत्सव का आयोजन किया। राज्य के संस्कृति संचालनालय के इस आयोजन में हाथरस शैली की नौटंकियां पेश की गईं। कानपुर शैली की तुलना में हाथरस शैली को गायकी प्रधान माना जाता है। बगैर स्वर को तोड़े लंबे-लंबे आलापों की गलेबाजी का इसमें काफी महत्त्व है। कई दृश्यों में अभिनेतागण इस हुनर का मुकाबला जैसा करते नजर आते हैं। कोई तय नहीं कि इस मुकाबले में गौण किरदार मुख्य किरदार से बाजी मार ले जाए। उत्सव के पहले दो दिन मथुरा के स्वस्तिक ग्रुप ने 'अमरसिंह राठौर' और 'हरिश्चंद्र तारामती' प्रस्तुतियां कीं। अमरसिंह राठौर बादशाह शाहजहां का बहादुर सिपहसालार है, जिससे 'राजपूतों का दुश्मन' वजीरेआला सलावत खां रंजिश पाले हुए है। अमर सिंह अपनी दुल्हन का गौना कराने दरबार से छुट्टी पर गया है। रास्ते में उसे प्यास से बेहाल एक पठान मिलता है। पानी पिलाने से वह अमर सिंह का मुरीद और दोस्त बन जाता है। उधर लौटने में देरी पर अमर सिंह पर साढ़े सात लाख रुपए जुर्माना लगा दिया गया है। लेकिन सवाल है कि जुर्माना वसूल कौन करे। गंवई अतिशोयक्ति की हद यह है कि नायक की न

राजस्थानी गोग स्वांग

कुछ अरसा पहले त्रिवेणी सभागार में हिंदी अकादमी की ओर से राजस्थानी गोग स्वांग का मंचन कराया गया। सांबर के राजा की इस कथा को मंच पर महबूब खिलाड़ी एंड पार्टी ने पेश किया। प्रस्तुति के लिए मंच पर सिर्फ तीन माइक खड़े कर दिए गए थे। पात्रगण इन्हीं के सामने खड़े होकर अपनी गायकी और अभिनय का मुजाहिरा करते हैं। स्त्री पात्रों में भी पुरुष ही हैं। राजस्थानी चटकीले रंग हर किसी की वेशभूषा में दिखाई देते हैं। स्वांग की विधा नाटक के ढांचे के साथ कैसे खेल करती है, यह प्रस्तुति उसका एक नायाब उदाहरण थी। एक कहानीनुमा कुछ है जिसके बीच लंबे-लंबे आलापों वाली गायकी और पारंपरिक नाच वगैरह भी चलते रहते हैं। स्वांग का नायक पगड़ी, मूछों, काजल, कटार वाला राजा गोप चवाण है। एक दिन उसके पास उसकी मौसीमां ने आकर कहा कि 'बेटे गोप चवाण मैं तेरी जगह पे अपने बेटों अर्जन और सर्जन को राज कराना चाहूं हूं।' लेकिन भांजे के बात न मानने पर उसने कहा 'आज से जैसे राम के लिए कैकेयी वैसे ही तेरे लिए मैं'। मौसी के बाद मां आई पर गोप चवाण नहीं माना। इस वाकये के बाद मौसीमां का बेटा सर्जन सिंह जाकर बादशाह सलामत से मिल लेता ह

कूड़ा एक शाप है

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के दूसरे वर्ष के छात्रों की प्रस्तुति 'सोचो जब सब उल्टा हो' बच्चों का नाटक है। निर्देशक प्रसन्ना ने इसमें बढ़ते कचरे के सवाल को उठाया है। स्वीडिश लेखिका ऑस्ट्रिड लिंडग्रन की प्रसिद्ध बाल चरित्र पिप्पी लांगस्टॉकिंग्स इसकी केंद्रीय पात्र है। पिप्पी की मरहूम मां एक फरिश्ता बन चुकी है और पिता चंबल का बागी गब्बर सिंह था। अब पिप्पी शहर के ठाकुर विला में अपने तीन साथियों- एक भूत, एक बंदर और एक गधे के साथ रहती है। फिर पड़ोस में रहने वाले दो बच्चे भी उसके साथी बन जाते हैं। पिप्पी कचरा बीनने का काम करती है। नाटक में वेदव्यास और गणेश जी भी हैं। असल में गणेश जी ही पिप्पी के रूप में आकर मंच पर पूरा किस्सा बनाते हैं। एक दिन अपने ऊपर कूड़ा डाल दिए जाने से नाराज व्यास जी पिप्पी को शाप दे देते हैं कि वो जिंदगी भर कूड़ा ही बीनती रहेगी। शापमुक्ति का तरीका है कि सब लोग कूड़ा फेंकना बंद कर दें। नाटक में बहुत सारे पात्र और स्थितियां हैं। पिप्पी का सामना स्कूल मास्टर और उसे सुधार गृह भेजने पर उतारू पुलिस वालों से होता है। पर उसके और उसके साथियों के आगे किसी की एक नहीं चलती। प

कस्तूरबा गांधी का जीवन

मुंबई के आविष्कार और कलाश्रय ग्रुप की प्रस्तुति 'जगदंबा' यूं तो कस्तूरबा गांधी के जीवन पर केंद्रित है, लेकिन अंततः उसके केंद्र में महात्मा गांधी ही दिखाई देते हैं। प्रस्तुति में तीन पात्र हैं लेकिन उसकी शक्ल एकालाप की है। मुख्य एकालाप में कस्तूरबा महात्मा गांधी के साथ अपने जीवन को बयान करती हैं और उनके बयान की संवेदना को ज्यादा प्रामाणिक बनाते दो सहयोगी एकालाप उनके पुत्रों- मणि और हरि- के हैं। यह एक पारंपरिक भारतीय स्त्री के संस्कार और उसकी उम्मीदों के बरक्स उसके आत्मोत्सर्ग की कथा है। प्रस्तुति इस उत्सर्ग का महिमामंडन करने के बजाय इसे यथार्थ की जमीन पर देखती है और ऐसे में कस्तूरबा के मन पर लगने वाली चोटें, खुद के साथ उनका समझौता और हालात के आगे झुकना बार-बार दिखाई देता है। प्रस्तुति की कस्तूरबा पति की शुद्धतावादी जिदों के आगे लाचार दिखाई देती हैं। सिद्धांत के धरातल पर सोचते पति के आगे उनकी व्यावहारिक बुद्धि की एक नहीं चलती। वे युवा हो रहे पुत्र और पड़ोस की लड़की में दूरी रखने की हिमायती हैं, लेकिन गांधी दूरी के बजाय संयम के कायल हैं। पुत्र मणि के संयम न रख पाने की सजा वे उपवा

डार से बिछुड़ी

आख्यानमूलक साहित्यिक कृतियों पर नाट्य प्रस्तुति करने का प्रचलित तरीका यही है कि उन्हें संक्षिप्त करके उनके साहित्यिक कलेवर में ही प्रस्तुत किया जाए। लेकिन ऐसी प्रस्तुतियां रंगमंचीय तत्त्वों से रिक्त होने से अक्सर मंच के लिए सपाट भी साबित होती रही हैं। लेकिन उपन्यास 'डार से बिछुड़ी' के मंचन में ऐसा नहीं था। निर्देशकद्वय अंजना राजन और केएस राजेंद्रन ने कृष्णा सोबती के उपन्यास का मंच पर एक सांगीतिक रूपांतरण किया है, जिसमें उपन्यास के पात्र मुकम्मल चरित्रों के तौर पर नहीं बल्कि संकेतों के रूप में दिखते हैं। उन्होंने उपन्यास का संक्षेपण नहीं किया है, लेकिन कथावस्तु के विस्तार के लिहाज से स्थितियों को एक सांकेतिक दृश्य के तौर पर बरतने की विधि अपनाई है। हर स्थिति यहां समूचे विन्यास का एक विवरण मात्र है। उसकी कोई दृश्यात्मक स्वायत्तता नहीं है। वह मंच पर घटित नहीं होती, बल्कि प्रस्तुत की जाती है। इस प्रस्तुतीकरण में जो अभिनेता एक स्थिति में नायिका का हमदर्द शेख बना है, वही बाद में उसका सबकुछ छीन लेने वाला क्रूर बरकत। इस तरह निर्देशकगण एक साहित्यिक पाठ को दर्शक के लिए एक रंगमंचीय अनुभव म

ममताजभाई पतंगवाले

पिछले कुछ वर्षों के दौरान युवा आलेखकार और निर्देशक मानव कौल ने हिंदी रंगमंच में एक महत्त्वपूर्ण जगह बनाई है। हर साल दिए जाने वाले महिंद्रा एक्सीलेंस इन थिएटर अवार्ड (मेटा) के लिए इस साल उनके दो नाटक नामित किए गए। इनमें से एक 'ममताज भाई पतंगवाले' दो अलग-अलग वक्तों की कहानी है। करीब बीस-पच्चीस साल पहले गुजर चुके और हमारे आज के वक्त की। इस बीच समय की गति में कोई ऐसा पेंच रहा है कि व्यक्ति वो नहीं रहा जो वह था। यह बदला हुआ व्यक्ति पूरी तरह अन्यमनस्क है। वह चीजों में रस लेता हुआ दिखता है, लेकिन तत्क्षण ही हर रसास्वाद को भूल जाता है। वह फुर्तीला और स्मार्ट हो गया है, लेकिन उसमें अपने वक्त की कोई तल्लीनता नहीं है। वह फोन पर नया जोक सुनकर ठहाका लगाता है और लगभग भूल चुका है कि उसके बचपन में घर के पड़ोस में एक सच्चे पतंगबाज ममताज भाई थे। नाटक फ्लैशबैक में जाकर उस पूरे जीवन को याद करता है जिसमें ममताजभाई के अलावा अवस्थी मास्टर साहब, मां, बहन, दोस्त आनंद और इनके केंद्र में पतंगबाजी का दीवाना विकी हुआ करता था, जो मानता है कि ममताजभाई के बीवी-बच्चे नहीं हो सकते, क्योंकि वे तो पतंगबाज हैं न!

नौटंकी शैली में ओथेलो

बीते दिनों अभिमंच प्रेक्षागृह में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के दूसरे वर्ष के छात्रों की प्रस्तुति 'मौन एक मासूम सा' का मंचन किया गया। त्रिपुरारी शर्मा के निर्देशन में शेक्सपीयर के ओथेलो पर आधारित यह कथित रूप से नौटंकी शैली की प्रस्तुति थी। शैलीकरण के लिए त्रिपुरारी शर्मा ने अपने रूपांतरण में- वालिदा, खाबिंद, अब्बा हुजूर, शमशीर आदि- काफी उर्दू शब्दों का इस्तेमाल किया है। प्रस्तुति में बहरे तबील की लय को पकड़ने की कोशिश जरूर है लेकिन अक्सर उसमें तल्लीनता और मीटर की कमी दिखती है, और आधी अधूरी गलेबाजी रस-निर्माण के बजाय रसभंग ज्यादा करती है। पूरी प्रस्तुति में गढ़न बहुत स्पष्ट दिखाई देती है। डेस्डिमोना का नाम यहां दिव्या है, रोडरिगो का रुद्रो, इयागो का योग्या और कैसियो का मधुकर कश्यप। लेकिन नाम में कुछ नहीं रखा, शायद इसीलिए ओथेलो का नाम ओथेलो ही रहने दिया गया है। छंद की गढ़न के लिए उसे बार-बार जंगी कहा जाता है- 'नजर रखना जंगी अगर तेरी आंख देख सकती, धोखा दिया वालिद को तुझे भी दे सकती' या 'इधर आ जंगी मेरे, मौका है ये खास/ तहेदिल से देता तुझे, जो है पहले से तेरे पास'। इ

शरीर में अभिनय की पहचान

रंग-अभिनय के क्षेत्र में शरीर का कई तरह से संधान किया गया है। भारंगम में प्रदर्शित अर्जेंटीना की दो युवा अभिनेत्रियों- मरीना क्वेसादा और नतालिया लोपेज- की 'मुआरे' नामक प्रस्तुति इसका एक उदाहरण है। यह प्रस्तुति एक उपन्यास से प्रेरित है जिसमें लेखिका ने गहरे मृत्युबोध में हर स्मृति और वस्तु को मानो बड़े आकार में और बहुत पास जाकर देखा है। यथार्थ को देखने के इस ढंग ने इन अभिनेत्रियों को मंच पर एक 'गति आधारित भाषा' रचने का विचार दिया। दरार पड़े शरीर और उसमें स्वायत्त हो चुके अंगों की भाषा। अपने एकांगीपन में हर अंग क्या कर सकता है- इसकी देहाभिव्यक्ति। मंच में बने एक दरवाजे में शीशा लगा है, जिसमें सबसे पहले उंगलियां, फिर हथेली, पूरा हाथ और फिर एक लहराती हुई काया दिखती है। थोड़े से खुले दरवाजे से एक-एक अंग करके बहुत कोशिशों के साथ यह दुबली-पतली काया भीतर आती है। एक जर्जर, कांपती हुई-सी स्त्री-देह। बहुत कोशिश करके खड़ी होती और चलती, गिरती-पड़ती, वहीं पड़ी मेज पर खुद को मरोड़ती-तोड़ती और फर्श पर आड़े-तिरछे, किसी निर्जीव की तरह ऊटपटांग ढंग से फैल जाती। थोड़ी देर में वैसी ही एक दूस