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मेन विदाउ शेडो

इधर नाटक देखना बहुत कम हो गया है। लेकिन कुछ साल पहले तक हर सप्ताह तीन-चार प्रस्तुतियां देखने का सिलसिला था। इतनी देखी हुई प्रस्तुतियों में से किसी एक को सर्वोत्तम के रूप में छां टना मुश्किल लगता है। निर्देशकीय कल्पनाशीलता के एक से एक उदाहरण याद आते हैं। करीब 22-24 साल पहले देखी वीरेंद्र सक्सेना निर्देशित ये आदमी ये चूहे (जिसकी अब धुंधली याद ही बाकी है) से लेकर मोहन महर्षि की जोसफ का मुकदमा, रंजीत कपूर की चेखव की दुनिया, राजेंद्र नाथ निर्देशित तीसवीं सदी, स्वप्न संतति, हाइनर मुलर की अंतरराष्ट्रीय प्रसिद्धि हासिल करने वाली प्रस्तुति रेजिस्टिबल राइज ऑफ आर्तुरो उई और इसमें मार्टिन वुटके का लाजवाब अभिनय, अनूठे ग्राफिक प्रभावों वाली जर्मन प्रस्तुति इंटू द ब्लू, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय छात्रों की प्रस्तुति ट्रोजन वार.....आदि कितनी ही प्रस्तुतियां हैं जो अलग अलग वजहों से कई सालों बाद भी रंग-स्मृति का खास हिस्सा बनी हुई हैं। लेकिन इनके अलावा एक प्रस्तुति ऐसी है जो देखने के दिन से आज तक लगता है जैसे दिमाग में अटकी है। यह श्रीराम सेंटर एक्टिंग कोर्स के छात्रों की प्रस्तुति थी- ज्यां पाल सार्त्र

रात के दस बजे

उस लड़के की उम्र बारह-तेरह साल रही होगी। रात के दस बजे वह बस में कोटला के स्टैंड से चढ़ा था। वह एक आदमी के साथ था जिसकी दाढ़ी हल्की बढ़ी हुई थी। दोनों आकर मेरे बराबर की सीट पर बैठ गए। बैठते ही उस मैकेनिकनुमा आदमी ने लड़के से पूछा- 'फिर तूने उससे क्या कही?' 'उस...वाले को तो मैं सबक सिखाऊंगा', लड़के की कच्ची आवाज में निकली एक पक्की गाली सुनकर मैकेनिक हंसने लगा और आगे की सीट पर बैठे एक आदमी ने मुड़ कर दोनों को देखा। लड़के ने काले रंग की जैकेट और दस्ताने पहने हुए थे जिनकी उंगलियों की पोरें एकाध जगह उधड़ी हुई थीं। माथे पर उसने ऋतिक रोशन की तरह एक पट्टी बांधी हुई थी। उसकी कुल वेशभूषा उसके आत्मविश्वास और उम्मीदों की तस्दीक कर रही थी। कंडक्टर आया तो मजाक में उसने उसकी पट्टी उतार दी। लड़के को इस तरह की छेड़खानियों का अभ्यास था। जैसा कि उस आदमी और लड़के की बातचीत से जल्द ही जाहिर हो गया, बस के ज्यादातर यात्रियों की तरह लड़का भी नौकरी से घर लौट रहा था। पर वह औरों की तरह लस्त नहीं था। उसे चाहे जैसी भी जिंदगी मिली हो उसे लेकर उम्र का एक विश्वास उसके मन में अभी बाकी था। बड़े