संदेश

अक्तूबर, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

साइकिल पर लंगूर

कल वो बंदा उस उजाड़ इमारत के बाहर एक बार फिर दिखा। उसके साथ उसकी साइकिल और लंगूर थे। लंगूर के गले में हरे रंग की काफी लंबी रस्सी थी। मौका समझते ही वो उछल कर साइकिल के कैरियर पर बैठ गया, और टुकुर टुकुर परिदृश्य को निहारने लगा। अब ये दोनों अपने रोजगार को निकलेंगे। ये दोनों इस खंडहरनुमा इमारत में ही रहते हैं। सालों से अधबनी, बिना पलस्तर की, सौ-सवा सौ फ्लैटों वाली इस इमारत के आसपास साल दर साल की बारिश से बड़ी बड़ी घास, झाड़ झंखाड़ बढ़ गए हैं। सुना है बिल्डर और प्राधिकरण में इसकी जमीन को लेकर कोई झगड़ा चल रहा है। कुछ भी हो, एक उजाड़ इमारत में लंगूर के साथ रहता आदमी- मुझे ये बिंब अपने में काफी बीहड़ मालूम देता है। ये दोनों प्राणी इस इमारत से निकलते हैं और आसपास की सोसाइटियों में बंदर भगाने का काम करते हैं। प्रकृति की कुछ ऐसी लीला है कि बंदर लंगूर से बहुत घबराते हैं और उसे देखते ही भाग खड़े होते हैं। इसी चीज को इस शख्स ने अपना रोजगार बना लिया है। जिस इमारत में मैं रहता हूं, उसमें भी अक्सर बंदर आ जाते हैं। बंदरों के घर में घुस आने की कई कहानियां यहां अब तक बन चुकी हैं। दरवाजे बंद मिलने पर