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गुड़

गुड़ पिता को बहुत पसंद था। खाना खाते वक्त अंतिम रोटी वे उसके साथ चाव से खाते थे। अम्मां से कहते- `थोड़ा मिष्टान्न दो भाई..।' और अम्मां उन्हें गुड़ निकाल कर दे देतीं।     पिता जिंदगी की गति में रमे हुए आदमी थे। वे अभावों से घबराने वाले व्यक्ति नहीं थे। अभावों में वे प्रायः कोई न कोई सार्थकता तलाश लिया करते थे। अपने बचपन और देहात की चर्चा करते हुए अक्सर वे गुड़ का जिक्र किया करते थे। तब गांव में बिजली नहीं थी और गन्नों की पेराई के लिए मशीन बैलों की ऊर्जा से चलाई जाती थी। रात-रात भर गुड़ पकाया जाता था। लोग भट्ठे की आग तापते बैठे रहते, आलू और शकरकंद भूनकर खाते और जोर-जोर से आल्हा गाते।      गुड़ की उपस्थिति गांव के घरों में अनिवार्य है। दादी उसे घड़े में बंद करके रखती थीं। त्योहारों में वहां गुड़ के पुए बनते हैं और आज भी वहां गर्मी की दोपहरियों में आगंतुक के आगे गुड़ का शरबत ही पेश किया जाता है। एक बार जून की भद्दर गर्मी में भरी दोपहर गांव पहुंचने पर मैंने भी इस शरबत का स्वाद चखा था। गुड़ के शरबत की मिठास थोड़ी कसैली होती है। दादी ने लोटा भर बनाया था, पर मेरे लिए एक गिलास पीना भी भारी