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साइकिल पर लंगूर

कल वो बंदा उस उजाड़ इमारत के बाहर एक बार फिर दिखा। उसके साथ उसकी साइकिल और लंगूर थे। लंगूर के गले में हरे रंग की काफी लंबी रस्सी थी। मौका समझते ही वो उछल कर साइकिल के कैरियर पर बैठ गया, और टुकुर टुकुर परिदृश्य को निहारने लगा। अब ये दोनों अपने रोजगार को निकलेंगे। ये दोनों इस खंडहरनुमा इमारत में ही रहते हैं। सालों से अधबनी, बिना पलस्तर की, सौ-सवा सौ फ्लैटों वाली इस इमारत के आसपास साल दर साल की बारिश से बड़ी बड़ी घास, झाड़ झंखाड़ बढ़ गए हैं। सुना है बिल्डर और प्राधिकरण में इसकी जमीन को लेकर कोई झगड़ा चल रहा है। कुछ भी हो, एक उजाड़ इमारत में लंगूर के साथ रहता आदमी- मुझे ये बिंब अपने में काफी बीहड़ मालूम देता है। ये दोनों प्राणी इस इमारत से निकलते हैं और आसपास की सोसाइटियों में बंदर भगाने का काम करते हैं। प्रकृति की कुछ ऐसी लीला है कि बंदर लंगूर से बहुत घबराते हैं और उसे देखते ही भाग खड़े होते हैं। इसी चीज को इस शख्स ने अपना रोजगार बना लिया है। जिस इमारत में मैं रहता हूं, उसमें भी अक्सर बंदर आ जाते हैं। बंदरों के घर में घुस आने की कई कहानियां यहां अब तक बन चुकी हैं। दरवाजे बंद मिलने पर

गुड़

गुड़ पिता को बहुत पसंद था। खाना खाते वक्त अंतिम रोटी वे उसके साथ चाव से खाते थे। अम्मां से कहते- `थोड़ा मिष्टान्न दो भाई..।' और अम्मां उन्हें गुड़ निकाल कर दे देतीं।     पिता जिंदगी की गति में रमे हुए आदमी थे। वे अभावों से घबराने वाले व्यक्ति नहीं थे। अभावों में वे प्रायः कोई न कोई सार्थकता तलाश लिया करते थे। अपने बचपन और देहात की चर्चा करते हुए अक्सर वे गुड़ का जिक्र किया करते थे। तब गांव में बिजली नहीं थी और गन्नों की पेराई के लिए मशीन बैलों की ऊर्जा से चलाई जाती थी। रात-रात भर गुड़ पकाया जाता था। लोग भट्ठे की आग तापते बैठे रहते, आलू और शकरकंद भूनकर खाते और जोर-जोर से आल्हा गाते।      गुड़ की उपस्थिति गांव के घरों में अनिवार्य है। दादी उसे घड़े में बंद करके रखती थीं। त्योहारों में वहां गुड़ के पुए बनते हैं और आज भी वहां गर्मी की दोपहरियों में आगंतुक के आगे गुड़ का शरबत ही पेश किया जाता है। एक बार जून की भद्दर गर्मी में भरी दोपहर गांव पहुंचने पर मैंने भी इस शरबत का स्वाद चखा था। गुड़ के शरबत की मिठास थोड़ी कसैली होती है। दादी ने लोटा भर बनाया था, पर मेरे लिए एक गिलास पीना भी भारी

गनीमत है कि गनीमत है

     गनीमत है कि भुखमरी, अशिक्षा, बेरोजगारी वगैरह के बावजूद लोकतंत्र देश में अभी बचा हुआ है। जैसे गुजरात और कश्मीर के बावजूद सेक्युलरिज्म अभी बचा हुआ है। भूमंडलीकरण के बावजूद न्यूनतम वेतन कानून बचा हुआ है। कम्युनिज्म के दुनिया में न रहने के बावजूद मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी बची हुई है।      कवि मदन कश्यप की एक पंक्ति है गनीमत है कि गनीमत है। गनीमतें हमारे वक्त में टूटी पड़ रही हैं। दिन भर बिजली गायब रहती है, लोग कहते हैं गनीमत है कि रात को तो आ जाती है। अखबारों में बलात्कार और छेड़खानी की खबरें बढ़ती हैं तो लोग कहते हैं कि गनीमत समझो कि जीबी रोड और सोना गाछी अभी बचे हैं। कई बार लगता है कि शायद किसी दिन ये गनीमतें चुक जाएंगी। लेकिन गनीमतें भी कभी चुका करती हैं क्या? आज अगर इसलिए गनीमत है कि पड़ोस में हमसे भी गरीब बांग्लादेश है, तो कल क्या इसलिए गनीमत में नहीं होंगे कि कहीं न कहीं कोई इथियोपिया दुनिया में तब भी होगा। जैसे विश्वव्यापी मंदी के बावजूद उपभोक्तावाद बचा हुआ है। बार बार के सूखे और बाढ़ के बावजूद खेती अभी बची हुई है, तमाम विनिवेश के बावजूद सार्वजनिक क्षेत्र अभी बचा हुआ है, क्