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विंडरमेयर फेस्टिवल में 'अवेकनिंग्स'

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बरेली के विंडरमेयर फेस्टिवल में इधर कई वर्षों के बाद जाना हुआ। इसके सूत्रधार और संचालक डॉक्टर ब्रजेश्वर सिंह शहर के प्रसिद्ध ऑर्थोपेडिक सर्जन हैं, जिनकी शख्सियत अपने में एक बायोपिक का विषय है। उनके थिएटर ग्रुप रंग विनायक ने इस बार उनके सुझाव पर ‘अवेकनिंग्स’ नाम की प्रस्तुति की, जो सन 1973 में लिखी गई इसी नाम की पुस्तक और बाद में उसपर बनी फिल्म से प्रेरित है। पुस्तक के लेखक डॉक्टर ओलिवर सैक्स ने इसमें अपने उन अनुभवों को लिखा है जो 1920 के दशक में फैली ‘स्लीपिंग सिकनेस’ नाम की बीमारी के मरीजों के इलाज के दौरान उन्हें हुए। इन मरीजों की चेतना एक लंबी नींद में ठहर गई है। उनमें एक खिलाड़ी है, एक म्यूजिक कंपोजर, एक नॉवलिस्ट, एक कवि। इन्हीं में से एक मरीज मिस रोज़ को गेंद कैच करते देख डॉक्टर सैक्स को उसमें ठीक होने की संभावना नजर आती है, क्योंकि बरसों से एक ‘स्टक पोजीशन’ में होने के बावजूद वह ऐसा कर पा रही है। वह अपने सीनियर डॉक्टर की दलील कि ‘यह महज एक रिफ्लैक्स है’ को यह कहकर खारिज करते हैं कि अगर वैसा होता तो वह गेंद से बचने की कोशिश करती न कि उसे पकड़ने की। एक मरीज है जिसके अंग-प्रत्यंग बु

पिता की याद

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मेरे पिता दुनियादारी के लिहाज से नितांत अव्यावहारिक इंसान थे। एक गृहस्थ की सलाहियत उनमें ज्यादा नहीं थी। दरअसल वे एक सुखवादी व्यक्ति थे। कोई भी समस्या उनके लिए बहुत बड़ी नहीं थी। इसीलिए आसन्न समस्याओं को लेकर भी उनके पास कोई योजना नहीं होती थी। कई बार समस्या जब बड़ी होकर सिर पर आ खड़ी होती तो वे अपने बिस्तर पर जाकर सो जाते। उनका यह स्वभाव उनके दांपत्य को निरंतर कलहपूर्ण बनाए रखता। मेरी माँ उनकी सनातन विरोधी थीं। असल में वो हर किसी की विरोधी थीं, और स्वयं की प्रबल समर्थक थीं। कलह का एक कारण उनके पास हमेशा मौजूद होता—अनियमित और अपर्याप्त आमदनी। पिता ज्यादातर समय अस्थायी नौकरियाँ या फ्रीलांस काम ही करते रहे। इस तरह किल्लत और कलह से युक्त हमारे घर के इस वातावरण में बीती 27 नवंबर को मेरी माँ के दिवंगत होने तक 60 साल पुराना उनका दांपत्य अटूट चलता रहा। 0000 सन 1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या के अगले से अगले रोज जब सिख विरोधी हिंसा भड़की हुई थी, एक घटना घटी। एक व्यक्ति साइकिल के कैरियर पर कपड़े धोने के पीले साबुन का 15-20 किलो का एक गट्ठा हमारे गेट पर रखकर हड़बड़ी में चला गया। किसी ने बताया

इतिहास से मुगलों और डार्विन को हटाए जाने की पूर्वकथा

  एस.एल. भैरप्पा (प्रसिद्ध कन्नड़ लेखक) वर्ष 1969-70 में श्रीमती इंदिरा गांधी की सरकार ने नेहरू-गाँधी परिवार के करीबी राजनयिक जी. पार्थसारथी की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया। कमेटी का काम था-- शिक्षा के माध्यम से राष्ट्र को एकता के सूत्र में पिरोना। उस समय मैं एनसीईआरटी में शैक्षणिक दर्शनशास्त्र विषय में रीडर था और समिति के पाँच सदस्यों में चुना गया था। हमारी पहली बैठक में श्री पार्थसारथी ने बतौर कमेटी चेयरमैन प्रायः एक कूटनीतिक भाषा में हमें समिति का उद्देश्य समझाया : "यह हमारा कर्तव्य है कि हम बढ़ते बच्चों के मन में ऐसे कांटे न बोएँ जो आगे चलकर राष्ट्रीय एकता में बाधा खड़ी करें। ऐसे काँटे ज्यादातर इतिहास के पाठ्यक्रमों में मिलते हैं, और कभी-कभी भाषा और समाज विज्ञान के पाठ्यक्रमों में भी। हमें उन्हें निकाल बाहर करना है। हमें केवल ऐसे विचारों को शामिल करना है जो हमारे बच्चों के मन में राष्ट्रीय एकता की अवधारणा को मजबूती से बिठाते हों। इस समिति को यह महती जिम्मेदारी दी गई है।”   बाकी चार सदस्य उनकी बात के समर्थन में सम्मान से अपना सिर हिला रहे थे। लेकिन मैंने कहा, "सर,

सावरकर की पेंशन, सैयद अहमद की पेंशन

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सावरकर को 1924 में कैद के 13 साल बाद रत्नागिरि जेल से तो रिहा किया गया, लेकिन रत्नागिरि जिले से बाहर न जाने की बंदिश लगा दी गई, जो कि एक भिन्न तरह की कैद थी। वहाँ उन्होंने पाँच साल अपने साधनों से गुजारा किया, लेकिन जब जीवनयापन का संकट गहराने लगा तो उनकी शिकायत पर 1929 से उन्हें 60 रुपए की मासिक पेंशन ब्रिटिश प्रशासन की ओर से दी जाने लगी। ये 60 रुपए उस वक्त कितने थे? इसके लिए सावरकर-विरोधी एक दस्तावेज ढूँढकर लाए। यह वो सरकारी पत्र है जो अगले ही साल यानी 1930 में यरवदा जेल में कैद किए गए गाँधी के ऊपर खर्च होने वाली रकम के लिए जारी किया गया था। यह रकम 100 रुपए प्रतिमाह थी। प्रतिमाह के लिए अंग्रेजी शब्द mensem का अनुवाद सावरकर-विरोधियों ने ‘प्रतिवर्ष’ कर दिया और बताया कि गाँधी पर प्रतिमाह सिर्फ सवा आठ रुपए खर्च किए जाते थे। बहरहाल, गाँधी पर खर्च होने वाले 100 रुपए प्रतिमाह उनके लिए विशेष रूप से नियत की गई राशि हो ऐसा नहीं था। पत्र में बताया गया है कि यही राशि बंगाली कैदी सतीश चंद्र पर भी खर्च की जाती थी। यानी सावरकर को बतौर पेंशन दी जाने वाली राशि अपने समय के हिसाब से न्यूनतम थी। लेकिन

गिरीश कर्नाड का जीवन

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गिरीश कर्नाड की हिंदी में सद्य प्रकाशित संस्मरणात्मक पुस्तक ‘यह जीवन खेल में’ कई कारणों से पढ़ने लायक है। एक वजह है कि इसमें पिछली सदी के उत्तरार्ध का एक विहंगम बौद्धिक-सांस्कृतिक दृश्य दिखाई देता है। दूसरी वजह है कि लेखक ने इसमें बीच-बीच में आत्मकथा के एक जरूरी समझे जाने वाले अवयव बेबाकी का भी आवश्यकतानुसार समावेश किया है। तीसरी वजह इसे पढ़ते हुए होने वाली यह प्रतीति है कि लेखक अपने परिवेश से काफी गहरे संपृक्त है। लेकिन जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं इन तीनों ही वजहों में एक लोचा दिखाई देता है। लगता है जैसे बातें आधे-अधूरे ढंग से बताई जा रही हैं। कि लेखक के ऑब्जर्वेशन बहुत किताबी ढंग के हैं। कि किताब में जो भी किरदार आ रहे हैं उनकी छवियाँ बहुत स्पष्टता से नहीं दिख पा रहीं। कि ज्यादातर पात्र और स्थितियाँ लेखक की व्याख्या के निमित्त से छोटे-छोटे, अधूरे और एकांगी जिक्रों के रूप में एक रूखे संदर्भ के तौर पर पेश हो रहे हैं। जैसे कि फिल्म ‘वंशवृक्ष’ के निर्माण के दौरान ब.व.कारंत के साथ रहे उनके लंबे साथ और संबंधित विवरणों के बावजूद उनकी शख्सियत की कोई ठोस तस्वीर न बन पाना। इस समस्या की एक वजह जो

इतिहास की गलतफहमियाँ

हिंदूवादी उभार के बाद से कुछ गलतफहमियाँ जो आम धारणा की तरह दिखाई दे रही हैं उनमें से एक यह है कि अब तक अंग्रेजों और मुस्लिम शासकों ने अपनी तरह से गलत इतिहास लिखवाया जो अब नहीं चलेगा। जबकि सच्चाई यह है कि भारत का ज्यादातर प्रामाणिक इतिहास मुस्लिम शासन और अंग्रेजी राज के दौरान ही लिखा गया। हिंदुओं में चूँकि जीवन और काल की अवधारणा ही बिल्कुल भिन्न थी इसलिए उनके यहाँ इतिहास लिखे जाने का चलन नहीं था। अल बिरूनी ने सन 1030 के आसपास लिखी अपनी किताब ‘तारीख-उल-हिंद’ में हिंदुओं में अपनी विरासत के प्रति लापरवाही, गद्य के प्रति अरुचि और छंद के लिए दीवानगी का जिक्र किया है। उसके कहे का उदाहरण बाद में ‘पृथ्वीराज रासो’ जैसी रचना में देखने को मिलता है जो हिंदुओं के आहत अहं के लिए भले ही उपयोगी हो, पर उसमें वर्णित ब्योरों का इतिहास के अन्यत्र उपलब्ध तथ्यों से कोई तालमेल नहीं है। इसके उलट मुसलमानों में अपने वक्त के ब्योरे दर्ज करने का चलन हमेशा से था। उन्हें झूठ लिखने की भी कोई जरूरत नहीं थी क्योंकि काफिरों की हत्याएँ और मंदिर विध्वंस उनके लिए एक पवित्र काम था। इसीलिए मुसलमान इतिहासकारों ने इस्लामी रा

मर्चेंट ऑफ वेनिस के बहाने

पिछले दिनों बापी बोस ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय छात्रों के लिए नाटक ‘मर्चेंट ऑफ वेनिस’ निर्देशित किया। उन्होंने पूछा- कैसा लगा नाटक? मैंने बात को घुमाते हुए कहा- कई लोग तो तारीफ कर रहे थे, कुछ को तो काफी अच्छा लगा। उन्होंने फिर दोहराया- आपको कैसा लगा? मैं- मुझे तो यथार्थवादी ट्रीटमेंट ही पसंद आता है। वो- शेक्सपीयर का नाटक यथार्थवादी नहीं है। मैं- उस अर्थ में यथार्थवादी न सही, पर शेक्सपीयर के अपने स्टाइल का यथार्थवाद (जिस वजह से ब्रेख्त का आर्तुरो उई शेक्सपीयरियन तौर-तरीके सीखता है) तो है... वो- वो स्टाइल उन्होंने निर्माण किया है और दुनिया भर में फैलाया है। लेकिन शेक्सपीयर रियलिस्टिक कैसे हो सकता है? उसकी आधुनिक व्याख्या हो सकती है, हम उसमें रियलिज्म की कुछ चीजें जरूर इस्तेमाल करते हैं, विशेष रूप से एक्टिंग में, क्योंकि इस विषय पर जर्मन एक्सप्रेशनिस्ट्स ने काफी काम किया है। उसका प्रेजेंटेशन ग्रैंड होता है लेकिन एक्टिंग एक लॉजिक पर स्थिर होकर शेप लेती है। मैं- ये बताइये, पोर्शिया जब घर से निकल रही है तो जो जिप वाले सूटकेस दिखाए हैं वो क्या शेक्सपीयर के जमाने में चलते थे? वो- इसको कही